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________________ ५०८ अात्मतत्व-विचार है । ध्यान के चार प्रकारों में से आतध्यान और रौद्रध्यान अशुभ होने के कारण त्याज्य है, इसलिए यहाँ ध्यान शब्द से धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही समझना चाहिए। इन दोनों ध्यानों का परिचय गुणस्थानो के प्रसग में दिया जा चुका है। (१२) उत्सर्ग या व्युत्सर्ग : उत्सर्ग यानी त्याग, व्युत्सर्ग माने विशेष त्याग । दोनों शब्द यहाँ त्याग के अर्थ में . ही समझने चाहिए। व्युत्सर्ग दो प्रकार का है : द्रव्य व्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग। द्रव्यव्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं-(१) गणव्युत्सर्ग यानी लोकसमूह का त्याग करके एकाकी विचरना। (२) शरीरव्युत्सर्ग यानी शरीर की ममता छोड़ देना । (३) उपाधिव्युत्सर्ग यानी वस्त्र, पात्र आदि उपाधियों की ममता छोड़ देना । (४) भुक्तपान व्युत्सर्ग यानी आहार-पानी का त्याग करना । इसे संथारा कहते हैं । भावव्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं : (१) कषायव्युत्सर्ग यानी कषायों का सम्पूर्ण त्याग करना । (२) संसारव्युत्सर्ग यानी संसार का त्याग करना और ( ३) कर्मव्युत्सर्ग यानी आठो प्रकार के कर्मों का त्याग करना । इस तप में गरीर-व्युत्सर्ग यानी कायोत्सर्ग की गणना विशेष रूप से होती है । उसमें काया को एक आसन से, वचन को मौन से और मन को ध्यान से काबू में रखना होता है। कुछ सूचनाएँ तप निर्जरा का मुख्य साधन है, इसलिए उसकी आराधना कर्मनिर्जरा के ही लिए करना चाहिए । तप से कितनी ही सिद्धियाँ मिलती हैं और लाभ भी होता है, पर इन हेतुओं से तप नहीं करना चाहिए । __तप शक्ति के अनुसार करना चाहिए | और धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। जिस तप से आत्मा के परिणाम गिरें और तप की भावना श्री नष्ट होती हो ऐसा शक्ति-वाह्य तप नहीं करना चाहिए। गुरु
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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