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________________ ५०२ श्रात्मतत्व-विचार स्टर के पास जाता है और बचने के उपाय के लिए वह जितना पैसा मॉगे, उतना पैसा देता है । आपके कारखाने में "कोई चीन नित्य बिगड़ जाती हो तो उसका उपचार विशेषज्ञ से करवाते ही हैं। आपको कोई भयङ्कर रोग होता है तो उससे मुक्ति के लिए आप आधी सम्पत्ति खरच कर डालते हैं। आप सांसारिक कठिनाइयों से बचने के लिए कितना द्रव्य खर्च कर डालने को तत्पर रहते हैं ! आत्मा को कर्म के बन्दीगृह से छुड़ानेवाले को, बिगड़ते हुए जीवन को सुधारनेवाले को और भवरोग से मुक्त करनेवाले को क्या मूल्य चुकायेंगे ? महापुरुष तो परोपकार के व्रतधारी होते हैं । वे आपसे किसी मूल्य की आशा नहीं रखते । वे सिर्फ यह चाहते हैं कि, आप इस उपाय को पूरी निष्ठा से आजमायें और जितनी जल्दी हो सके भवपरम्परा से मुक्त हो जायें। तप नये कर्मों को ही नहीं, पुराने कर्मों को भी भस्म कर डालता है। महापुरुष स्पष्ट शब्दो में कहते हैं कि "भवकोड़ो संचियं कम्म, तवसा निजरिजह"-करोड़ों भवों में सचित किया हुआ कर्म भी तप द्वारा नष्ट हो जाता है। इसलिए मौजूदा सब कर्मों का क्षय करने के लिए तप का आश्रय लेना चाहिए। - इसका अर्थ यह हुआ कि, अब तक जितना कर्म सत्ता में है, उन सब का यदि भय कराना हो तो तप का आश्रय लेना चाहिए । प्रश्न-तप के बिना भी कर्म खपते हैं या नहीं ? उत्तर-अनजाने में, ठड, गर्मी तथा दूसरे कष्ट सहन करने से कुछ कर्म खपते हैं, पर उसमें निर्जरा का परिमाण बहुत कम होता है। इस तरह कर्मों के नष्ट होने को 'अकाम निर्जरा' कहते हैं। प्रश्न-तप करनेवाले को कैसी निर्जरा होती है ? । उत्तर-अगर तप में अहिंसा या आत्म-शुद्धि का विचार मुख्य न हो तो कर्म की निर्जरा अल्प मात्रा में होती है और अगर तप में अहिंसा और
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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