SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 578
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ - आत्मतत्व-विचार प्राप्त कर लेता है; इसलिए अघाती कर्मों के फल को सहन और समभाव' से भोगता है। इस केवलज्ञानी परमात्मा को भी मन, वचन और कायाः की प्रवृत्तिरूप योग होते हैं; इसलिए वह सयोगकेवली कहलाता है, सयोगकेवली आत्मा की यह अवस्थाविशेष सयोगकेवली गुणस्थान है । इस गुणस्थान पर वर्तते हुए सामान्यकेवली भव्य जीवों को उपदेश देते हुए गाँव-गॉव विचरते हैं, जबकि केवलज्ञान को प्राप्त करनेवाले अरिहत-तीर्थकर अपने तीर्थकर-नामकर्म को वेदते हुए प्रवचन और संघरूपी तीर्थ की स्थापना करके भन्य जीवों को भवसागर तैर जाने का एक महान् साधन बना जाते हैं। इस गुणस्थान पर वर्तते जीव को किसी प्रकार का ध्यान नहीं होता, पर ध्यानातरिका, जीव-मुक्त दशा होती है। इस गुणस्थान पर रहनेवाली आत्मा जीवन्मुक्त परमात्मा कहलाता है । इस गुणस्थान की स्थिति जघन्य रूप से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट रूप से देशोनकोटिपूर्व यानी करोड़-पूर्व मेंआठ-वर्ष-कम होती है। इस गुणस्थान के जीव को बाकी रहे हुए अघाती सर्वकर्म का क्षय करने के लिए योगविरोध करना होता है। परन्तु, उससे पहले अगर अघाती कर्मों में तरतमता हो तो उसे दूर करने की आवश्यकता रहती है। अधिक स्पष्ट कहे तो वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीनों में से एक, दो या तीनों की स्थिति आयुष्यकर्म की अपेक्षा कुछ अधिक हो तो चारों अघाती कर्मों को समस्थिति का बनाने के लिए 'केवलीसमुद्घात' नामक क्रिया करनी पड़ती है, जिसका वर्णन हमने प्रसगोपात्र आत्मा की अखण्डता नामक पाँचवें व्याख्यान में किया है। (१४) अयोगकेवलीगुणस्थान मयोगकेवली जब मन, वचन और काया के योगों का निरोध करके
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy