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________________ ४६४ आत्मतत्व-विचार से युक्त हो, उस अवस्था को सूक्ष्मसपराय गुणस्थान कहते हैं। यहाँ संपराय का अर्थ कषाय है। इस गुणस्थान पर क्रोध, मान या माया नहीं होते, पर लोभ का उदय होता है। उसे अत्यन्त सूक्ष्म बना दिया जाता है । वह उदय में से आखिरी समय मे जाता है। . इस गुणस्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। (११) उपशांतमोहगुणस्थान उपशमणि द्वारा जीव दसवें गुण स्थान से ग्यारहवें गुणस्थान मे आता है, पर क्षपकश्रेणि करता हुआ जीव इस स्थान में न आकर सीधा बारहवे गुणस्थान में पहुंच जाता है । धीमी गाड़ी हो तो हर एक स्टेशन पर खड़ी रहती है; पर तेज गाड़ी कुछ स्टेशनों को छोड़ती हुई चलती है । यहाँ क्षपकश्रेणि को तेजगाड़ी के समान समझना चाहिए। जहाँ सब मोहनीय कर्म अमुक समय तक उपशांत हो जायें, आत्मा की ऐसी अवस्थाविशेष को उपशातमोहगुणस्थान कहा जाता है । इस गुणस्थान पर आया हुआ जीव जघन्य रूप से एक समय और उत्कृष्ट रूप से एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त वीतराग दशा अनुभव करता है। उसके बाद उपशात की हुई कषाय मोहनीय कर्म का उदय होने पर पुनः मोहपाश में बंध जाता है। यहाँ से गिरनेवाला छठे, सातवें, पाँचवें, चौथे या पहले गुणस्थान तक मे पहुँच जाता है। (१२) क्षीणमोहगुणस्थान जिसका मोहनीयकर्म सर्वथा क्षीण हो गया हो, उसकी अवस्थाविशेष को क्षीणमोह गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान पर सज्वलन लोभ का भय हो जाने पर, सकल मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है । ____अनतानंत वर्षों से जिन कर्मों का आत्मा पर वर्चस्व था, दबाव था, उनके चले जाने पर आत्मा को कैसा आनन्द आता होगा ! कैसी शाति
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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