________________
४७६
श्रात्मतत्व- विचार
चहुत आकृष्ट करता था । पर यौवन के ढलने और रूप के उतरने में क्या ढेर लगती है ? उसके यौवन और रूप के चले जाने पर अमात्य का प्रेम कम हो गया । प्रेम के पीछे जहाँ वासना प्रधान होती है, वहाँ अक्सर ऐसा ही होता है ।
स्त्री इस संसार के सत्र दुःख सहन कर सकती है, पर पति की उपेक्षा सहन नहीं कर सकती । वह उसे शूल की तरह लगती है । मत्री पोहिला की आतरिक अवस्था समझ गया । उसने सोचा कि, अगर इसका मन काम में लगा रहेगा तो यह अपना दुःख भूल जायेगी । इस हेतु से उसने एक दिन कहा - " पोट्टिला । अब से तू रसोईघर का कार्यभार सँभाल और यहाँ जो कोई श्रमण, ब्राह्मण या तपस्वी आयें, उन्हें दान देकर आनन्द मे रहा कर । "
पोहिला ने यह स्वीकार कर लिया और वह श्रमण, ब्राह्मण और तपस्वियों को दान देने लगी । एक दिन सुव्रता नामक साध्वी वहाँ आ पहुॅची। उन्हें ज्ञानी और गंभीर जानकर पोट्टिला ने कहा - " हे आर्या ! एक बार मैं अमात्य के हृदय का हार थी; पर आज उन्हें देखे नहीं अच्छी लगती, इसलिए कोई चूर्ण, मंत्र या कामण का प्रयोग हो तो बताइये ।"
साध्वी ने कहा - "हे देवानुप्रिये । हम निर्मन्थ- ब्रह्मचारिणी साध्वियाँ है, इसलिए सासारिक खटपट में नहीं पडतीं, ऐसी बात सुनने तक की कल्पना नहीं कर सकत। लेकिन, अगर तुझे मन का समाधान प्राप्त करना हो तो सर्वज्ञ भगवत का धर्म सुन ।” फिर उसने धर्म का स्वरूप समझाया और श्रावक के व्रत का रहस्य कहा । पोहिला ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण कर लिये ।
एक अच्छी बात दूसरी अच्छी बात को लानी है, इस न्याय से कुछ समय बाद पोट्टिला को सर्वविरतिचारित्र अगीकार करने की इच्छा हुई और इसके लिए उसने अमात्य से अनुमति चाही । यह घटना तब घटी जब कि, अमात्य को सब राज्यपिता-जैमा मान देते थे ।