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________________ ૨૭૪ आत्मतत्व-विचार काबू रखे, अर्थात् बिना आवश्यकता हलन चलन न करे और जहाँ तक बने अंगोपाग सकुचित रखे । संयत आत्मा आत्मकल्याण के हेतु से स्वाध्याय, ध्यान तथा तप की प्रवृत्ति करे और आवश्यक आदि अनुष्ठान द्वारा ज्ञान दर्शन- चारित्र की शुद्धि करता रहे । परम पद, निर्वाण या मोक्ष उसका ध्येय होता है और उस ध्येय की प्राप्ति के लिए वह उत्साहपूर्वक प्रयत्न करे । वह कभी अहदी या आलसी होकर न बैठा रहे । फिर भी, पौद्गलिक सुख के पूर्व संस्कार उस पर भरपूर आक्रमण करते रहते हैं, इसलिए कभी-कभी उसमें प्रमाद दिखायी देने लगता है - प्रमाद अर्थात् आत्मवर्ती अनुत्साह । इस तरह इस सयतपने में भी प्रमाद की आग का होने के कारण यह प्रमत्तसंयत अवस्था मानी जाती है ।' "संसार के दुःखों से भयभीत हुए प्राणियों को संयम धर्म की दीक्षा - प्रव्रज्या - ही शरणभूत है । अमात्य तेतलीपुत्र की कथा से आप यह बात अच्छी तरह समझ जायेंगे । अमात्य ततलीपुत्र की कथा तेतलीपुर-नामक एक नगर था । वहाँ कनकरथ नामक राजा राज्य करता था । उसको पद्मावती - नामकी सुन्दर और गुणवती पत्नी थी और साम, दाम, दंड और भेद की नीति मे कुशल तेतली पुत्र नामक महामात्य था । कनकरथ राजा को राजगद्दी पर बड़ा मोह था, इसलिए रानियो को जो पुत्र होते उनकी अगक्षति कर डालता, ताकि वह गद्दी पर न आ सके । १ - सज्वलन कपाय के तीव्र उदय से मुनि प्रमादयुक्त हो जाता है, इसलिए वैमा मुनि प्रमत्त गुणस्थानवती कहलाता है । - गुणस्थानक कमारोह गाथा २७ चाहिए
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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