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________________ ४५० आत्मतत्व-विचार सम्यक्त्व पाकर मिथ्यात्वी हो गये है, उनके मिथ्यात्व का अन्त आनेवाला है, इसलिए उनका मिथ्यात्व सादि-सांत है। ये सब जीव पहले इस गुणस्थान में होते हैं। (२) सास्वादन-सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान जब जीव को मिथ्यात्व नहीं होता और सम्यक्त्व भी नहीं होता, पर सम्यक्त्व का कुछ स्वाद होता है, तब उसे सास्वादन-सम्यग्दृष्टि नामक दूसरे गुणस्थान में माना जाता है । सास्वादन यानी कुछ स्वाद-सहित । सास्वादन मे तीन पद हैं-स+आ+स्वादन । इनमे 'स' का अर्थ 'सहित' है, 'आ' का अर्थ 'किंचित्' है, और 'स्वादन' का अर्थ 'स्वाद' है । इस तरह सास्वादन का अर्थ 'कुछ स्वाद सहित' होता है। __ आत्मा की ऐसी अवस्था कब होती है, इसे भी समझ लीजिए । ससारी जीव अनन्त पुद्गल परावर्तन काल तक मिथ्यात्व में पड़ा हुआ भवभ्रमण करता रहता है । नदी का पत्थर टूटता और रगड़ खाता हुआ अत में गोल बन जाता है, उसी तरह यह जीव अनायोग-रूपसे प्रवृत्ति करता हुआ, जब आयुष्य-कर्म के अतिरिक्त सातों कर्मों की स्थिति एककोड़ाकोड़ी-सागरोपम से पल्योपम का असख्यातवॉ-भाग कम की कर लेता है, तब वह राग द्वेष के अति निबिड़ परिणाम-रूप ग्रन्थि-प्रदेश के समीप आता है। अभव्य जीव भी इस तरह कर्मस्थिति हलकी करके, अनन्तो बार ग्रन्थि के समीप आते हैं, पर वे उस ग्रन्थि का भेद नहीं कर सकते, जबकि भव्य जीव विशुद्ध परिणामों की कुल्हाड़ी से उस ग्रन्थि को तोड़ डालते हैं और सम्यक्त्व के सम्मुख पहुंच जाते हैं। जीव की उन्नति के इस इतिहास को शास्त्रकारों ने तीन करणों में बाँटा है। (१) यथाप्रवृत्तिकरण, (२) अपूर्वकरण और (३) अनिवृत्तिकरण | एक गाथा है
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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