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________________ गुणस्थान ४४५ उन आरोहियो की आप किन शब्दो में प्रशंसा करेंगे? उन्हें आप किस वाणी से अभिनंदित करेंगे? गुणस्थान कोई पर्वत नहीं है, भौगोलिक स्थान नहीं है; वरन् उसका सम्बन्ध आत्मा से है, यह तो आप अब तक के व्याख्यानो मे समझ भी गये होगे। पहले के व्याख्यानो में हमने कभी-कभी 'तेरहवाँ गुण स्थान' 'चौदहवाँ गुणस्थान' आदि शब्द प्रयोग किये है। जैसे व्यापार का अर्थशास्त्र के साथ, ओषध का वैद्यकशास्त्र के साथ, ध्यान का योग के साथ प्रगाढ सम्बन्ध है, वैसे ही गुणस्थान का कर्म के साथ सम्बद्ध है। अगर, आप गुणस्थान का क्रम जान लें और उसका स्वरूप समझ लें, तभी आप यह समझ सकते है कि आत्मा की किस अवस्या में किन कमों की सत्ता, किन कर्मों का बन्ध, किन कर्मों का . उदय और किन कर्मों की उदीरणा होती है। इसीलिए हमने कर्म विषयक इस व्याख्यानमाला में गुणस्थान का आज लिया है। हम पहले गुणस्थान का अर्थ बताते हैं, फिर उनकी सख्या बतायेंगे और तब उनके स्वरूप का वर्णन करेंगे। गुणस्थान का अर्थ जैसे पाप का स्थान पापस्थान या पापस्थानक कहलाता है, वैसे ही गुण का स्थान गुणस्थान या 'गुणस्थानक' कहलाता है। प्राकृत या अर्धं मागधी भाषा में उसका रूप 'गणठाण' होता है। अपभ्रश-भाषा में उसे 'गुणठाणु' कहते हैं। अब गुण और स्थान इन शब्दों का अर्थ समझ लें । गुण से तात्पर्य है-आत्मा के गुण ! वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। उनका स्थान अर्थात् उनकी अवस्था । इस प्रकार गुणस्थान का अर्थ हुआ—'आत्मा के गुणों के विकास की विविध अवस्थाएँ ।'
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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