________________
आत्मतत्व-विचार
इक्कीसर्वे उपवास पर यक्ष प्रसन्न हुआ । उसने कहा - "हे भद्र ! यहाँ एक मोर आकर रोज नृत्य करेगा । उसकी सुवर्णमय चन्द्रकला में एक हजार पख होंगे । उन्हें तू ले लेना ।” दूसरे दिन से मोर आने लगा और निष्पुण्यक उसके गिरे हुए पख लेने लगा । इस तरह जब नौ सौ पख इकट्ठे हो गये, तत्र उसने सोचा - " इस तरह तो न जाने कितना समय और लगेगा | अबकी बार तो मुट्ठी भर कर पंख उखाड़ लेने चाहिए ।" बुद्धि कर्मानुसार बतायी गयी है; सो गलत नहीं है । कर्मवगात् जैसा फल मिलनेवाला होता है, वैसी ही बुद्धि हो जाती है ।
४२२
मोर नाचने आया और उसके पंख उखाड़ने के लिए निष्पुण्यक मुट्ठी भरी ही थी कि, मोर गायब हो गया और उसके इकट्ठे किये हुए नौ सौ पख भी अदृश्य हो गये । वह बहुत पछताने लगा । पर, अब क्या हो सकता था ? उसी गरीबी की हालत में वह इधर-उधर भटकने लगा ।
इतने में एक ज्ञानी मुनिराज दिखायी दिये । निष्पुण्यक उनके पास गया और विधिपूर्वक वन्दन करके उनके सामने बैठ गया । फिर, अपने दुर्भाग्य का वर्णन करके उसने उसका कारण पूछा। मुनिराज ने उसके पिछले भवों की सारी कहानी बतलायी और बतलाया - " अगर तुझे अपने दुर्भाग्य को दूर करना हो तो जितना द्रव्य ले उससे ज्यादा देने का संकल्प कर !” उसी समय निष्पुण्यक ने मुनिराज के सामने प्रतिज्ञा ली - "मैंने पूर्व भव मे जितना देवद्रव्य लिया है, उससे एक हजार गुना द्रव्य देव-द्रव्य में जमा कराऊँगा और जब तक रकम पूरी न कर दूँ, तब तक मुझे अन्नवस्त्र के उपरात किसी भी चीज का सग्रह नहीं करना है ।" इस नियम के साथ उसने श्रावक के व्रतों को भी अगीकार किया ।
उस दिन से उसका दिनमान सुधरने लगा । जो काम हाथ में, ले सो पूरे होने लगे और उनमें लाभ होने लगा । उसमें से उसने देव-द्रव्य की पूर्ति करनी शुरू कर दी और इस तरह एक हजार काकणी के बदले में