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आत्मा का अस्तित्व
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आचार्य ने कहा- "यह उद्यानभूमि स्वय तेरी है । इसलिए, यहाँ बैठना या न बैठना तेरी इच्छा पर है ।"
तत्र राजा और चित्र सारथी उनके पास बैठे। राजा ने आचार्य से पूछा – “हे भन्ते । आप श्रमण-निर्ग्रन्थो में ऐसी मान्यता है कि 'जीव' भिन्न है और 'शरीर' भिन्न है, क्या यह सच है ?"
केशीकुमार ने कहा - " हॉ! हम यही मानते है ।" राजा ने कहा - "जीव और शरीर अलग नहीं है, वरन् एक ही है । इस निर्णय पर मैं कैसे पहुॅचा सो सुनिए । मेरा टाढा इस नगरी का ही राजा था । वह बडा अधार्मिक था और प्रजा की भी सार-सम्भाल अच्छी तरह नहीं करता था । वह आपके मतानुसार तो मरकर किसी नरक में ही गया होगा । अपने दादा का मै प्रिय पौत्र हॅू। उसे मुझ पर वडा स्नेह था । अब आपके कथनानुसार 'जीव' और 'शरीर' भिन्न हो और वह मरकर नरक गया हो, तो यहाँ आकर मुझे इतना तो बताये कि, 'तू किसी भी प्रकार का अधर्म मत करना, क्योंकि उसके फलस्वरूप नरक में जाना पड़ता हैं और भयकर दुःख भोगने पडते है, पर, वह अभी तक मुझसे कभी कहने नहीं आया, इसलिए जीव और शरीर एक ही है और परलोक नहीं है मेरी यह मान्यता ठीक है । "
आचार्य ने कहा - " हे प्रदेशी ! तेरी सूर्यकान्ता नामक रानी है । उस सुन्दर - रूपवती रानी के साथ कोई सुन्दर रूपवान पुरुष मानवीय काममुख का अनुभव करता हो, तो उस कामुक पुरुष को तू क्या दण्ड दे १"
राजा ने कहा—“हे भन्ते । मै उस पुरुष का हाथ काट दूँ, पैर छेट डालू और उसे सूली भी चढ़ा दूँ, या एक ही प्रहार मे उसकी जान ले लूँ ।"
आचार्य - "हे राजन् ? वह कामुक पुरुष तुझसे यह कहे कि, 'हे स्वामी । घड़ी भर ठहर जाओ। मैं अपने कुटुम्बियो और मित्रो से यह कह आऊँ कि कामवृत्ति के वशीभूत होकर मैं सूर्यकान्ता के सग में पड़ा;