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कर्मवन्ध और उसके कारणों पर विचार
३६७ चाहिए। जो क्रिया श्रद्धापूर्वक की जाती है वही ज्ञानपूर्वक की गयी क्रिया है।
भावना के अनुसार कर्म के बन्धन में अन्तर पड़ता है। यही बात शास्त्रों में बतायी गयी है। आप षडावश्यक रूप प्रतिक्रमण की क्रिया करते समय वदित्त-सूत्र बोलते हैं, उसमें नीचे की गाथा आती है :
समदिट्ठी जीवो, जइवि हु पावं समायरइ किंचि ।
अप्पो सि होइ बंधो, जेण न निद्धधसं कुणइ ।। ३६ ।।
-सम्यग्दृष्टि नीव पूर्वकृत पापों का प्रतिक्रमण करने के बाद भी संयोगवशात् अमुक पाप करता है, पर उसे कर्मबन्ध अल्प होता है, कारण कि उस पाप को वह निर्दयता के तीव्र अध्यवसाय से नहीं करता।
कभी मिथ्यादृष्टि आत्मा पाप को मान कर क्रिया करता है, तब उसे कर्मबन्ध ढीला अवश्य होता है। पर, वह सम्यग्दृष्टि के बराबर ढीला नहीं, पूरे-पूरे मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा ढीला पड़ता है।
हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये पॉचों अनुक्रम से पापस्थानक हैं, फिर भी हम उनका सेवन करते हैं और प्रसन्न होते है, कारण कि अभी दृढ रूप से यह नहीं समझा कि ये पाप हैं ।
युक्ति से 'चोर को पकड़नेवाले सेठ की बात एक व्यापारी बड़ा धनवान था। उसने अपनी सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए दो मुसलमान नौकर रखे थे। एक का नाम मुल्ला था, दूसरे का काजी। दोनों बड़े बलवान थे। सेठ घर के अन्दर सोता था और नौकर बाहर।
एक रात दो चोर आये और घर की पिछली दीवाल में सेंध देने लगे। सेठ-सेठानी जाग गये, लेकिन बोले तो चोर मार डालें। फिर भी