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________________ ३६६ आत्मतत्वःविचार पर बैठा हुआ था। राजा के निकट जाकर उसने राजा को एक थप्पड़ लगाया और उसका मुकुट गिरा दिया। कहिए, आपको अपने भाग्य पर है, इतना भरोसा ? अगर हो तो क्या धर्मकार्य मे कृपण बनें ? सुपात्र को सौ के बनाय हजार का दान क्यो न दें ? जितना दान करे उतना लाभ हो, लेकिन विश्वास कहाँ है ? सिपाहियों ने जब वह नजारा देखा तो वे दौडे आये और म्यान से तलवार निकाल ली । लेकिन, वह तलवार सेठ की गरदन पर पड़े, उससे पहले ही, पुण्य के जोर से, सारा मामला ही बदल गया। नीचे पड़े हुए मुकुट पर राजा की दृष्टि पड़ी, तो उसमे उसे एक छोटा लेकिन भयंकर सॉप दिखायी पड़ा । राजा को लगा-'अहो ! अगर यह उपकारी न आया होता, तो क्या होता? राजा ने सिपाहियों को आगे बढ़ने से रोक दिया और मंत्रियो को हुक्म किया--"इस सेठ को पाँच गाँव इनाम दे दो।" पुण्य पर भरोसा हो तो ऐसे लाभ हो ! प्रश्न-'भाग्य बड़ा है या पुरुषार्थ ? उत्तर-'भाग्य का निर्माता पुरुषार्थ है। सासारिक पदार्थ आदि द्वारा बाँधे हुए कर्मों का फल भोगने में भाग्य की प्रधानता है, लेकिन कर्मों को तोड़ने में, पुण्यानुवधी पुण्य प्राप्त करने में पुरुषार्थ का प्राधान्य है। धर्मप्रवृत्ति में पुरुषार्थ को नहीं छोड़ना चाहिये । हर एक विचार और प्रवृत्ति में देखना सिर्फ यह चाहिये कि, वह विचार अथवा प्रवृत्ति तीर्थकर भगवन्त के कथनानुसार है या नहीं ! वह सेठ भाग्य की परीक्षा करने गया था। उसके बुरे प्रयत्न का अच्छा परिणाम आया। तो आप भी भाग्य के भरोसे शुभ प्रयत्न क्यों न करें ? फल से कर्म की सत्ता का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है। कोई उसे प्रारब्ध कहता है; कोई सस्कार कहता है तो कोई अदृष्ट कहता है। .
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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