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________________ कर्म का उदय ३५६ ही उदय में आता है । उत्कृष्ट अवाधाकाल ७००० वर्ष का होता है, जघन्य अन्तर्मुहूर्त का होता है । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में यह भी नहीं है, क्योंकि वहाँ एक सातावेदनीय कर्म का बन्ध है और कषायें नहीं है; इसलिए कर्म की स्थिति भी नहीं है । पहले समय बन्ध, दूसरे समय उदय ( भोग) और तीसरे समय क्षय ! सत्ता में पड़े हुए कर्मों में परिवर्तन होता है ! यह स्मरण रखिए कि, सत्ता में पड़े हुए कर्मों में परिवर्तन होते रहते है और वे परिपक्व होने के बाद ही उदय में आते हैं । कर्म एक बार फल देकर खिर जाते हैं। खिरे हुए कर्म आत्मा को न तो लगते हैं और न कष्ट देते है । इस तरह अबाधाकाल मे उनमें परिवर्तन होते ही रहते है, लेकिन यदि कर्म निकाचित बाधा हो, तो उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, शेष में होता है। जो कर्मबद्ध हो, वह स्पृष्ट या निधत्त बन सकता है, निधत्त हो तो निकाचित बने या स्पृष्ट हो तो बद्ध बन सकता है। अर्थात् कर्म को जिस स्थिति में बाँधा हो, उसकी वही स्थिति उदय के समय नहीं रहती। उदय में आता हुआ कर्म किस तरह भोगा जाता है ? कर्म की १०० वर्ष की स्थिति बॉधी हो, तो उतने समय तक के लिए उस कर्म का योग निश्चित हो जाता है। कर्म के जितने दलिया हो उतने सौ वर्ष तक उन्हे भोगना पड़ता है। पहली आवलिका की दलिया उदय में आने के बाद दूसरी की १ सामान्य नियम यह है कि, किसी भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितने कोडाकोड़ी सागरोपम वर्ष की हो, उतने सौ वर्षीका अवाधाकाल होता है । उदाहरणत. मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोडाकोढी मागरोपम वर्ष की है, इसलिए उसका अवावाकाल ७००० वर्ष का होता है। ज्ञानावणीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ाकोड़ी सागरोपम वर्ष की है । अत. उसका अवाधाकाल ३००० वर्ष का होगा।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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