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________________ ३१२ श्रात्मतत्व-विचार से ही रुग्णा और गूँगी हुई; कारण कि उसने सुन्दरी के पूर्वभव में चालको के पढने के साधन जला डाले थे । कितने ही व्यक्तियो को पढना अच्छा नहीं लगता । पढ़ने बिटाइए तो ऊँघ आती है और पन्द्रह दिन में भी एक गाथा नहीं होती। इसे ज्ञानावरणीय का उदय समझना चाहिए । इसलिए महानुभावो । ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनो की आगातना कभी नहीं करनी चाहिए । 1 दर्शनावरणीय कर्म जो कर्म आत्मा के दर्शनगुण का आवरण करे, दर्शनगुण को ढके, वह दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है । दर्शन अर्थात् वस्तु का सामान्य बोध, जैसे राजा से भेंट करनी हो तो दरवान बाधक बन जाये, उसी तरह यह कर्म वस्तु का सामान्य बोध नहीं होने देता । इस कर्म का जितने परिणाम में अयोपशम होगा, उतने ही परिणाम मे आत्मा वस्तु का सामान्य बोध कर सकती है; उससे अधिक नहीं । जब आत्मा इस कर्म का संपूर्ण क्षय कर देती है, तत्र केवल दर्शन की प्राप्ति हो जाती है । दर्शनावरणीय कर्म को उत्तर प्रकृतियाँ नौ हैं : (१) चक्षुदर्शनावरणीय, (२) अचक्षुदर्शनावरणीय, (३) अवधिदर्शनावरणीय, (४) केवलदर्शनावरणीय, (५) निद्रा, (६) निद्रानिद्रा, (७) प्रचला, (८) प्रचलाप्रचला और ( ९ ) स्त्यानर्द्धि ( थीणद्धी ) जो चक्षुरिन्द्रिय द्वारा होनेवाले वस्तु के सामान्य बोध को रोके, वह चक्षुदर्शनावरणीय, जो चक्षु को छोड़कर शेष चार इन्द्रियो तथा पाँचवें मन के द्वारा होने वाले सामान्य बोध को रोके वह अचक्षुदर्शनावरणीय; जो आत्मा को होनेवाले रूपी द्रव्य के सामान्य बोध को रोके वह अवधिदर्शनावरणीय; और जो केवलदर्शन द्वारा होनेवाले वस्तुमात्र के सामान्य बोध रूप के केवलदर्शन को रोके वह केवलदर्शनावरणीय । * दर्शन सम्बन्धी विशेष विवेचन आठवें व्याख्यान में हुआ है ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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