________________
३०४
आत्मतत्व-विचार रयणादेवी को मालम हो गया कि, सार्थवाह के दोनो पुत्र रत्नदीप छोड़ कर अपने देश की ओर जा रहे है । वह अत्यन्त कुपित होकर हाथ मे ढाल-तलवार लेकर उनका पीछा करती हुई लवण-समुद्र के बीच उनके पास आ पहुंची और कहने लगी-"अरे माकंदी पुत्रो ! तुमने यह क्या किया ? मेरी अनुमति के बिना रत्नदीप कैसे छोड़ा ? अब भी भलमनसाहत , से वापस चलो, वर्ना तुम्हारे टुकडे टुकड़े कर दूंगी।”
परन्तु, सार्थवाह के पुत्रों ने उसकी ओर न देखा। सेलक यक्ष आगे बढता गया । इस तरह प्रतिकूल उपसर्ग निष्फल जाते देखकर रयणादेवी ने अनुकूल उपसर्ग करने का निर्णय किया । वह कहने लगी-"तुमने मेरे साथ अनेक वार हास्य-विनोट और कुतूहलपूर्ण काम-क्रीडा की है, वनउपवन में साथ सैर की है; क्या वह सब बिल्कूल भूल गये? ऐसे निष्टुर होकर मेरा त्याग क्यो कर रहे हो ? तुम्हारी सज्जनता कहाँ गयी ? तुम्हारा
औदार्य कहाँ गया ? तुम्हारी कुलीनता कहाँ गयी? तुम्हारा स्नेह कहाँ गया ?"
इन वचनो से जिनरक्षित कुछ ढीला पड़ा, इसलिए रयणा देवी उसे लक्ष्य करके बोली-"मैं जिनपालित को अप्रिय थी और मुझे भी वह अप्रिय था । लेकिन, हे जिनरक्षित ! तू तो मुझे अत्यन्त प्रिय था और मैं भी तुझे अत्यन्त प्रिय थी। तू मेरे वचनो की उपेक्षा कैसे कर रहा है ? तू मुझे अकेली अनाथ छोड कर क्यो चला जा रहा है ? तेरे बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकती, इसलिए भला होकर लौट चल ! अगर मेरा कोई कसूर हुआ हो तो मै तुझसे बारबार क्षमा माँगती हूँ। ओ हृदयवल्लभ ! तू एक बार मेरी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टिपात कर, जिससे कि तेरा सुन्दर मुखकमल देखकर अपने सन्तप्त हृदय को शात करूँ।"
इन प्रेमपूर्ण मधुर वचनो से जिनरक्षित का चित्त चलित हो गया और वह पहले से भी ज्यादा प्रेम से रयणा देवी की ओर आकृष्ट हुआ और उसे विकारयुक्त दृष्टि से देखने लगा। यह बात सेलक-यक्ष ने अपने