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________________ योगवल ३०१ किया जाये ?" इतने में एक अद्भुत् रमणी उनके सामने आकर खड़ी हो गयी । उसके हाथ मे नगी तलवार थी और चेहरे पर एक प्रकार का आवेग था । उसने भृकुटी तानकर कहा - "यात्रियों तुम कहाँ आ गये, तुम्हें भान नहीं है ? यह रत्नद्वीप नामक द्वीप है और मैं इसकी अधिष्ठायिका रयणा-देवी हॅू | मेरी अनुमति के बिना इस द्वीप के तट पर तुम लोग कैसे उतरे ?" थे, सार्थवाह के पुत्र शूरवीर और निर्भीक थे, किसी की धौस नहीं सह सकते मगर समय देखकर बोले -- " देवी ! हम यहाँ स्वेच्छा से नहीं आये हैं, सयोग हमें घसीट लाया है । इसमें कोई अपराध हुआ हो तो क्षमा करना । " रयणा देवी ने कहा – “तुम्हारा अपराध सगीन है और प्राणदड के लायक है । लेकिन, एक गर्त पर तुम्हें माफी दे सकती हूँ, कि तुम मेरे साथ महल में चलकर मेरे साथ कामक्रीड़ा करो ।” मॉग विचित्र थी, फिर भी उसके आधीन हुए बिना छुटकारा नहीं था; इसलिए, दोनो भाई चुपचाप उसके साथ चले और रत्नजटित महल मे पहुँचे । वहाँ भोगविलास की अनुपम सामग्री उन्हें दी गयी । दोनों भाई भोग-विलास में लिप्त रहकर आमोद-प्रमोद करने लगे । और इस प्रकार स्वजन, सम्बन्धी, घरबार आदि सब भूल गये । मनुष्य का मन जब एक वस्तु में ओतप्रोत हो बन जाता है, तब दूसरी चीज का भान भूल जाता है । कुछ काल इस प्रकार व्यतीत हो जाने के बाद, एक दिन रयणा देवी ने कहा - " शक्रेन्द्र की आज्ञा से लवण समुद्र के अधिपति सुस्थित देव ने मुझे आदेश दिया है कि मैं इस लवण समुद्र का उसकी इक्कीस बार सफाई करूँ। यह तो मेरा ही पड़ेगा । मेरी अनुपस्थिति मे तुम महल में सुखपूर्वक रहना; आसपास कचरा दूर करने के लिए, काम है, इसलिए जाना
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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