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________________ योगवल २६६ चाहिए । हमारे यहाँ पर्व-तिथियो के दिनो मे पोपध करने का रिवाज है । अगर वह न बन सके तो यथाशक्ति तपश्चर्या तथा धर्म-ध्यान करने का विधान है । अभध्य का त्याग, हरी चीजो का त्याग, और रात्रिभोजन का त्याग तो करना ही चाहिए। पर्व अनादि काल से चले आये है। उन दिनो उल्लास बढता है और भावना जागती है, जिससे गुरुकर्मी आत्मा लघुकर्मी बन जाती है। इस प्रकार काल भी कभी-कभी कारण बन जाता है। तीर्थक्षेत्रो मे भी, पवित्र वातावरण के कारण धर्म करने की भावना विशेष जाग्रत होती है। आमतौर पर कजूस कहे जाने वाले लोग भी वहाँ जाकर उदारतापूर्वक पैसा खर्च करते देखे जाते हैं। इसलिए तीर्थक्षेत्रो मे बारबार जाना चाहिए और यथागक्ति धर्माराधन करना चाहिए। इस प्रकार क्षेत्र भी भावोल्लास का कारण बनता है। इसका अर्थ कोई यह न करे कि, धर्म तो पर्व के दिनो में या तीर्थक्षेत्रो मे जाने पर ही करना चाहिए । वह तो हर रोज करना चाहिए, हर घड़ी और हर पल करना चाहिए । नो हर रोज धर्म करते हो उन्हे पर्व-तिथि के रोज या तीर्थक्षेत्र में जाने पर विशेष धर्म करना चाहिए। उस समय उल्लास बढाना चाहिए। भावना या उल्लासरहित धर्मक्रिया धीमे-धीमे फल देती है और अल्प मात्रा में देती है, लेकिन भावना या उल्लास पूर्वक की हुई धर्मक्रिया खूब फल देती है। ___अग्नि मन्द हो तो प्रसग आने पर तीत्र या उग्र बन सकती है, लेकिन जहाँ आग ही न हो वहाँ तीव्र या उग्र होने का प्रसग कैसे आयेगा ? इसलिये, प्रतिदिन यथाशक्ति धर्म करते रहे तो ऐसा समय भी आ सकता है जबकि भावोल्लास खूब बढ जाये और हमारा काम बन जाये। मात्र भोगविलास मे रहने से तो सार्थवाह के पुत्रों की सी हालत होगी ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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