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योगवल
२६५ ही समय मे इजिन मे कोयला पडता हो, पानी डाला जाता हो, ईधन जलता हो, उसका धक्का लगने से दड ऊँचा-नीचा होता हो, और उसकी पहिया चलती हो जैसे सम्भव है, उसी प्रकार यहाँ भी इसी प्रकार समझना चाहिए।
जिस समय कार्माण-वर्गणाएँ अत्मप्रटेगो के साथ मिश्रित होती हैं उसी समय योगस्थानक के बल के अनुसार उसके भेद हो जाते हैं और हर भेद के कार्य का नियमन हो जाना ही प्रकृतिबंध है।
जिस कर्म का भाग न होता हो, और उसका पृथक-पृथक स्वभाव निश्चित न होता हो, तो कर्म एक प्रकार का ही रहता है। और, उसका परिणाम एक प्रकार का होता है। पर, अपने को जानना चाहिए कि, कर्म का परिणाम विचित्र होता है। इस कारण कर्म का स्वभाव एक समान न होकर विविधतावाला होता है। और, वह प्रदेशवध पड़ते समय निर्मित होता है।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि कार्मण-वर्गणा का भाग होता है। इस कारण वह अपने-अपने जत्थे मे चिमट जाता है । एक बड़ी वखार में विभिन्न तरह की चीजें आती हैं, पर अपने-अपने समूह में रखी जाती हैं।
कर्मों की मूल प्रकृतियाँ कर्मों के स्वभाव कुल आठ प्रकार के है (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७ ) गोत्त और (८) अन्तराय ।
यहाँ एक महानुभाव प्रश्न करते हैं-'कर्म की प्रकृति के साथ 'मूल' विशेषण लगाने का कारण क्या है ?' इसका उत्तर यह है कि, हर एक कर्म की उत्तर प्रकृति है । उससे भिन्नता दर्शाने के लिए यहाँ 'मूल' विशेषण लगाया गया है।
आपने 'अष्टकम' शब्द का प्रयोग तो बहुत बार सुना होगा । चैत्यवदन,