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________________ २८. कर्मवन्ध मिथ्यात्व एक प्रकार का दृष्टिविपर्यास है। इसके कारण जीव अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म समझता है, अमार्ग को मार्ग और मार्ग को अमार्ग समझता है; अजीव को जीव और जीव को अजीव समझता है, असाधु को साधु और साधु को असाधु समझता है तथा अमुक्त को मुक्त और मुक्त को अमुक्त समझता है । वह लौकिक अर्थात् सामान्य कोटि के देव, गुरु और पर्वो मं अनुरक्त रहता है, और जो देव, गुरु और पर्व लोकोत्तर यानी उत्तम कोटि के है, उनके द्वारा श्रेय की साधना करने के बजाय प्रेय की प्रियता में पड़ा रहता है। इससे उसका कर्मबन्धन और भवभ्रमण जारी रहता है। मिथ्यात्व का प्रतिपक्षी सम्यक्त्व है। उसकी प्राप्ति होने पर ही मिथ्यात्व हटता है। इसलिए सब मुमुक्षुओ को सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। आप 'लोगस्स उज्जोअगरे' आदि पदों से तीर्थकरों की स्तुति करने के बाद कहते हैं-- कित्तिय-वंदिय-महिया, जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्गा-वोहिलामं, समाहिवरमुत्तमं दितु ॥ -~जो लोकोत्तम है, सिद्ध हैं और मन, वचन, काय से जिनका स्तवन हुआ है, वे मुझे आरोग्य ( यानी मुक्ति का सुख ) दें, बोधिलाभ (यानी सम्यक्त्व ) दे और मरण-समय की समाधि दे । अविरति जिसमे विरति न हो वह अविरति कहलाती है। विरति का अर्थ है-व्रत, नियम, त्याग या प्रत्याख्यान | जो आत्मा किसी प्रकार का व्रत * कीर्तन से वाचिक स्तुति- वन्दन से कायिक स्तुति औरपूजन से मानसिक स्तुति होती है, उत्तम माने मरणसम्बन्धी और वर माने श्रेष्ठ, इस प्रकर यहाँ तात्पर्य मरण सम्बन्धी श्रेष्ठ समाधि से है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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