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________________ कर्मबन्ध २८३ विषय में बहुत कुछ जाना, फिर भी पाप का परिहार पूरी तरह नहीं कर पाते । जो कुछ त्यागा है, उसमें भी अनेक प्रकार के अपवाद रखे है । ऐसी हालत मे हम सफेद महल मे कैसे जा सकते थे ? हम यह जानते है कि जो आदमी हिंसा नहीं करे, परिग्रह नहीं रखे, क्रोध नहीं करे, मान नहीं सेवे, माया नहीं आचरे, लोभ नहीं करे, झगडे - फिसाद में नहीं पडे, झूठी मान्यता नहीं रखे, वही सच्चे अर्थ में धर्मी कहला सकता है । पर, ऐसा धर्मात्मापन अभी हम में प्रकट नहीं हुआ है, इसलिए हम तो अपने आपको अधर्मी ही मानते है । यद्यपि अधर्म से जल्दी छूट जाने के मनोरथ रखते हैं, फिर भी धर्मी होने का दावा नहीं कर सकते !" मन्त्रीश्वर ने कहा - " महानुभावो । धन्य है आपको और धन्य है आपकी समझदारी को ! आप धर्माचरण का प्रयत्न करते हैं और अपनी छोटी-बड़ी स्खलनाओ को दूर कर रहे है, इसलिए आप ही सच्चे धर्मात्मा हैं। सचमुच ! आप जैसे पुरुषों से ही इस राजगृही नगरी की शोभा है । " फिर उन्हें सफेद महल में ले गये और उनकी हकीकत जानकर सबने अपने सिर झुका दिये । इस प्रयोग से सबको यह बात समझ मे आ गयी कि नगर में धर्मियों की संख्या कम है, अधर्मियो की अधिक है । कर्मबन्ध के कारण आत्मा अनादि काल से कर्मबन्धन में है, यह विस्तारपूर्वक बताया गया । अब यह बतलायेंगे कि कर्मबन्ध किससे होता है । 'कारण के बिना कार्य नहीं होता', यह सिद्धान्त तो आपको पूर्णतः स्वीकार होगा । जगत के समस्त विचारक पुरुषो को यह सिद्धान्त मान्य है । विज्ञान ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी है । कर्मबन्ध एक प्रकार का कार्य है, इसलिए उसका कोई कारण होना चाहिये | जिनेश्वरदेव ने कर्मबन्ध के चार कारण बताये हैं: (१) मिथ्यात्व,
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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