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________________ कर्म की पहचान २५५ तत्त्वो का बोध कराने के लिए भी यही क्रम अपनाया जाता है। पहले उसका निर्देष होता है, फिर उसका विटोप वर्णन किया जाता है और अन्त में उसके हर एक अगोपाग का सूक्ष्म विवेचन किया जाता है। अनन्त वर्गणाओ मे से सोलह विप रूप से जानने योग्य है। पहले उनका नामनिर्देष किया जाता है, फिर उनका परिचय दिया जायेगा। उन सोलह वर्गणाओं के नाम यह है : (१) औदारिक शरीर के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (२) औदारिक शरीर के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा । (३) औटारिक-वैक्रियक शरीर के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा | (४) वैक्रियक शरीर के लिए ग्रहणयोग्य वर्गणा।। (५) वैक्रियक-आहारक शरीर के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (६) आहारक गरीर के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा । (७) आहारक-तैजस गरीर के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (८) तैजस शरीर के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा । (९) तैजस शरीर और भाषा के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा। '' (१०) भाषा के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा ।। (११) भाषा और श्वासोच्छवास के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (१२) श्वासोच्छवास के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा । (१३) श्वासोच्छवास और मन के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा। (१४) मन के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा। (१५) मन और कर्म के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा। (१६) कर्म के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा । इस सोलहवीं वर्गणा को 'कार्माण-वर्गणा' कहा जाता है। 'महावर्गणाओं' मे बहुत-सी अनु-वर्गणाएँ होती है । इन महावर्गणाओ मे से कुछ को अग्रहणयोग्य और कुछ को ग्रहणयोग्य कहा है । अब उनका तात्पर्य समझाया जाता है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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