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आत्मतत्व-विचार
के दौरान मे अलग किये गये कीमती गहनो को लेकर जिस रास्ते से आया था, उसी रास्ते से चला गया ।
इधर रूपसेन पर क्या गुजरी सो भी देखिये । वह निर्धारित समय पर राजमहल में पहुँचने के लिए घर से निकला और गली-कूचो को पार करता हुआ बढता जा रहा था कि एक जर्जर मकान की दीवार टूट कर उसपर गिर पड़ी। वह उससे दबकर मर गया । अन्त समय जैसी मति हो वैसी गति होती है, इसलिए वह मर कर उस जुआरी के वीर्य द्वारा सुनन्दा की कुक्षि मे गर्भरूप से उत्पन्न हुआ ।
समय गुजरते सुनन्दा का पेट बढने लगा । उससे वह घबराने लगी । माँ-बाप को खबर होगी तो वे मुझे धिक्कारेंगे और दुनिया भी फटकार बरसायेगी । इस भय से उसने विश्वस्त दासियो द्वारा दवा मॅगाकर गर्भपात कर दिया ।
गर्भ मे ही मरण पाना कुछ कम दुःख नहीं है, पर मोहग्रस्त आत्माओ की दशा ऐसी ही होती है। रूपसेन का आत्मा वहॉ से सर्प योनि मे जाकर सर्प बना ।
अब सुनन्दा पुरुषद्वेषिणी नहीं रही थी । उसे विवाह करने की इच्छा हुई और वह एक राजा के साथ व्याह दी गयी । वह अपने पति के साथ यथेच्छ विपय सुख भोगती दिन गुजारने लगी ।
उसके महल के बगीचे में ही वह सर्प उत्पन्न हुआ । वह एक दिन चलता-फिरता महल में आ गया। वहाँ उसने सुनन्दा को देखा । पहले का राग था, इसलिए वह हर्ष में आकर डोलने लगा और सुनन्दा से मिलने के लिए उसकी ओर बढने लगा । एक भयकर सॉप को अपनी तरफ आता देखकर सुनन्दा चिल्लाने लगी । सिपाहियों ने आकर तलवार से उसके टुकडे कर दिये ।
सुनन्दा के साथ मोग भोगने के विचार में रूपसेन के तीन भव पूरे हुए । चौथे भव मे वह कौआ बना । एक बार राजा रानी सगीत के