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आत्मा की शक्ति नहीं !" इत्यादि कहकर जब वन के ओर ने समझाया तो बकरिया सिंह का भ्रम दूर हो गया । वह उस शेर के साथ चल पडा और शेर की तरह जीने लगा। ___ इसी तरह आप भी दीर्घकाल से देहाटि पुद्गलो के साथ रहे है, इसलिए अपने को देहरूप मानते है और अपनी शक्ति को अत्यन्त मर्यादित मानते है । परन्तु, आप देह नहीं आत्मा है। अपनी अनन्त शक्ति का विकास कीजिए। उसके लिए विषय-कषाय छोड़िये । जो विषयो मे लिप्त रहते है वे किसी-न-किसी रूप से दुर्दशा को प्राप्त होते है।
रूपसेन की कथा पृथ्वीभूपण-नामक एक नगर था। उसके प्रजापालक राजा कनकध्वज को मुनन्दा-नामक एक सुन्दर पुत्री थी। वह यौवन की देहली पर कदम रख चुकी थी और उसका रूप प्रभात-कमल के समान अनेरी छटा से खिल उठा था। वह एक दिन महल के झरोखे से नगरचर्या देख रही थी कि, उसकी नजर सामने के मकान पर पडी। वहाँ एक पुरुष अपनी स्त्री को निर्दयता से पीट रहा था। स्त्री पैरो पड़कर कहती थो-"हे स्वामिन । अब भूल नहीं करूँगी ।" फिर भी वह उसे मारता ही जा रहा था। यह दृश्य देखकर सुनन्दा कॉप उटी। उसने विचार किया कि, अगर विवाहित जीवन में ऐसी ही पराधीनता है, ऐसे ही दुःख सहने पड़ते है, तो अच्छा है कि विवाह ही न किया जाये।
सुनन्दा वयस्क थी और रूप लावण्य-युक्त थी, इसलिए देश-परदेश से उसके लिए मॅगनी आती । परन्तु, माता-पिता के पूछने पर वह एक ही जवाब देती-"मुझे विवाह नहीं करना है।" __ उस नगर के वसुटत्त-नामक एक व्यापारी के चार पुत्र थे। उसमें सबसे छोटे का नाम रूपसेन था । छोटा पुत्र ज्यादा प्रिय होता है, उस पर कामकाज का बोझ भी कम होता है । रूपसेन भी ऐसा ही था, इसलिए