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श्रात्मतत्व-विचार
मिलना रखा। उसके बाद एक तीसरा दोस्त बनाया; पर वह कभी-कभी ही मिलता और नमस्कार - प्रणाम करके चला जाता । इस तरह एक के दो हुए, दो के तीन हुए ! उन्हें पहचानने के लिए कर्मचारी ने नाम रखे- पहले का नित्य-मित्र, दूसरे का पर्वमित्र और तीसरे का जुहारमित्र ।
एक बार कर्मचारी को विचार आया - " मैंने मित्र तो बनाये है, पर वह संकट के समय कितनी सहायता करते है, इसकी परीक्षा की जाये ।” इसके लिए उसने एक प्रपञ्च रचा। राजा के कुँवर को अपने यहाँ जीमने बुलाया और उसे अपने पुत्र के साथ रमत-गमत ( खेलकूद ) में लगाकर घर के अन्दर के गुप्त भोधरे मे उतार दिया । फिर, दूसरे पुत्र के साथ अपनी स्त्री को पीहर भेज दिया । फिर अपने एक ऐसे नौकर को जिसके पेट मे बात टिके ही नहीं बुलाकर कहा - "आज राजा के कुँवर को हमने जीमने बुलाया था, लेकिन उसके अति मूल्यवान गहने देखकर मेरी बुद्धि बिगड़ गयी, इसलिए मैने उसकी गरदन मरोड़ दी और गहने उतार लिए । पर, अब मुझे राजा का डर लगता है, जा रहा हॅू। किसी जगह जाकर छिप रहूँगा अगर राजा के आदमी तलाग करते हुए आयें, तो यह गुप्त भेद प्रकट मत करना, बल्कि अपनी अक्ल लड़ाकर ऐसा जवाब देना कि, मुझ पर धाड न आवे । इस तरह समझा कर कर्मचारी ने अपना घर छोड़ा और वह सोधा नित्यमित्र के
इसलिए मैं घर छोड कर
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यहाँ गया ।
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कर्मचारी को यकायक हक्का बक्का अपने यहाँ आया हुआ देखकर नित्यमित्र सोचने लगा कि, ढाल में जरूर कुछ काला है; लेकिन कोई सवाल पूछे जाने से पहले ही कर्मचारी ने बतला दिया – “मेरे प्यारे दोस्त | कहने के लिये जवान नहीं चलती, पर आज मेरे हाथो एक ऐसा काम हो गया है कि, जिसकी वजह से राजा मुझे जरूर पकड़ेगा और फॉसी पर लटकायेगा; इसलिए मेरा रक्षण कर ।"