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________________ आत्मा की अखण्डता ७१ कुछ लोग आत्मा को देह से सूक्ष्म परिमाणवाला मानते हैं । वे कहते है - " आत्मा तो मात्र चावल या जौ के दाने के बराबर है, " " मात्र अरीठा - जितना है, " " मात्र वेंत - जितना है" आदि । लेकिन, अगर आत्मा इस तरह देह से सूक्ष्म हो, तो प्रश्न होगा कि वह रहता कहाँ है ? अगर यह कहा जाये कि, वह हृदय में रहता है, तो बाकी के भाग में सुखदुःख का सवेदन कैसे होता है ? कोई हाथ-पैर मे सुई चुभोये तो तुरत दुख होता है और चन्दनादि का लेप करे तो सुख उपजता है । इसलिए कहना होगा कि, आत्मा देह से अधिक परिमाणवाला भी नहीं है और सूक्ष्म परिमाणवाला भी नहीं है, बल्कि देह - जितने ही परिमाणवाला है । एक श्रोता यहाँ प्रश्न करता है कि, "खर को अति अधिक खींचे तो उसके टुकडे हो जाते हैं; उसी तरह आत्मा किसी बहुत बड़े शरीर मे जाये और बहुत विस्तार पाये तो उसके टुकड़े हो जायेंगे या नहीं ?" इसका उत्तर यह है कि, 'आत्मा की शक्ति चौदह राजलोक' पर्यन्त व्याप्त हो सकने योग्य है, इसलिए चाहे जितने बडे शरीर में व्याप्त होने पर भी उसके टुकड़े नहीं होते, खड नहीं होते ।' एक दूसरा श्रोता प्रश्न करता है - " शरीर की अधिक-से-अधिक अवगाहना १००० योजन से कुछ ज्यादा होती है, इसलिए आत्मा को ज्यादा २. लोक का माप चौदह रज्जु है, इसलिए उसे चौदह राजलोक कहा जाता है । एक निमिप में लास योजन जानेवाला देव ६ महीने में जितनी दूरी तय करे, उसे एक ‘रज्जु' या एक 'राज' कहते हैं। पदार्थों की गति में, ग्रहों आदि की दूरी मापने में आधुनिक वैज्ञानिक भी प्रकाश वर्ष आदि उपमानों का इसी तरह उपयोग करते हैं । > जोयण सहस्ममहि, एगिदियदेहमुक्कोस ॥ २६१ ॥ - श्री वृहत्सग्रहणीसूत्र एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट देहमान हजार योजन से कुछ अधिक होता है । यह अवगाहना उतने गहरे जलाशय में कमल श्रादि की मानी गयी है
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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