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अपश्चिम तीर्थकर महावीर 69
तो सो गये हैं, लेकिन मुझे यह संगीत बड़ा रुचिकर लग रहा है, अतः अभी क्यों बन्द करवाऊँ । चलने देता हूं। सुबह होने पर ही बन्द करवा दूंगा ।
संगीत की महफिल चलती रही, कर्णप्रिय ध्वनियों को सुनते-सुनते न जाने कब रात्रि व्यतीत हो गयी, कुछ पता भी न चला । भोर का उजाला दिशाओं को प्रकाशमान बनाने लगा । पक्षी अपने-अपने घोंसले छोड़कर चहचहाट करते हुए जाने लगे। वातावरण की नीरवता समाप्त होने लगी। तभी त्रिपृष्ठ वासुदेव की निद्रा खुल गयी।
अरे ! भोर हो गया और यह क्या सुन रहा हूं? क्या संगीत अभी बन्द नहीं हुआ? सत्य है ? ध्यान लगाकर सुनते हैं। हां, हां... संगीत चल रहा है। क्या किया शय्यापालक ने? आदेश का पालन क्यों नहीं किया ? अनुशासन भंग क्यों किया? तब बुलाना चाहिए। तुरन्त शय्यापालक को बुलाकर त्रिपृष्ठ कहते हैं- क्या बात है ? संगीत बन्द क्यों नहीं किया?
शय्यापालक नीचे गर्दन झुकाये चुपचाप सुनता है । त्रिपृष्ठ- बोलते क्यों नहीं, जल्दी बोलो।
शय्यापालक - राजन् ! अपराध माफ कीजिए। मेरे कर्णों को अत्यन्त प्रिय लग रहा था, इसलिए बन्द..
मैंने
नहीं किया ।
अच्छा! वासुदेव ने कहा- तुमने अपनी एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर आदेश ठुकरा दिया । अब जिन कानों ने संगीत की मधुर ध्वनि सुनी है, उन्हीं कानों में गरम-गरम उबलता हुआ शीशा डाला जायेगा । शय्यापालक - अपराध माफ... कर........ दीजिए । त्रिपृष्ठ - धनुष से छूटे हुए बाण की तरह मुंह से निकले हुए शब्द वापिस नहीं आते।
तुरन्त आज्ञा दो, अनुचर को - शय्यापालक के कानों में उबलता हुआ शीशा डाला जाये ।
तब अनुचर वैसा ही करता है। गरम-गरम उबलता शीशा शय्यापालक के कानों में डालता है। उस वेदना से अभिभूत होकर