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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 51
पिताश्री! कायरों के लिए दुष्कर है, वीरों के लिए नहीं। मेरे दादा दीक्षा ले सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं ले सकता?
तुम ........ ? तुम बड़े ........ सुकुमार हो।
नहीं पिताश्री! मैं संयम ही ग्रहण करूंगा। मैंने मन में निश्चय कर लिया है। आप आज्ञा दीजिए।
आखिर भरतेश्वर को आज्ञा देनी ही पड़ी।
अभिनिष्क्रमण सहित अपने पुत्र को भगवान् ऋषभदेव के चरणों में समर्पित करते हुए ....... भगवन्! यह मेरा पुत्र अत्यन्त वल्लभकारी आपके चरणों में प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है, आप इसे भागवती दीक्षा देने की कृपा करें।
भगवान् सामायिक चारित्र का प्रत्याख्यान कराते हैं।
दीक्षा ग्रहण कर मरीचि स्थविर भगवन्तों के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन करते हुए समिति, गुप्ति एवं महाव्रतों का पालन करते हुए अपनी जीवनयात्रा को आगे बढ़ाते हैं।
ग्रीष्म का भयंकर समय । सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से भूमण्डल को संतप्त बना रहा था। गरम-गरम रेत, अग्नि की उष्णता की बराबरी करने लगी थी। ऐसी भीषण गर्मी में विहार करते हुए मुनि मरीचि के चरण गर्मी से लाल हो गये।
एक ......... एक ......... कदम उस गर्म रेत में चलना बड़ा दारुण लग रहा था। सारा शरीर स्वेद से तर-ब-तर हो गया। पसीना कपड़ों से टपकने लगा। उस विकट परीषह के आने पर मुनि का मन व्याकुल बन गया। चारित्र मोहनीय कर्म का उदय हुआ। मुनि चिन्तन करने लगे - ओह! संयम पालन बड़ा दुष्कर है! पिताजी ने कहा था ....... “तुम सुकुमार हो, परीषह सहन नहीं कर पाओगे!" पर मैं नहीं माना। संयम का भार सुमेरु पर्वत को हाथों में उठाने के समान है। मैं ....... इस ...... भार को वहन करने में समर्थ नहीं हूं। लेकिन ....... ..... अब......... ? अब ......... क्या करूं?
अब संयम छोड़ गृहस्थ में जाऊँ .... वह तो अनुचित होगा। कुल-गौरव में दाग लगेगा। लोग....... क्या कहेंगे? पहले भावुकतावश ले लिया. अब छोड़कर आ गया ........ तब क्या करूं? संयम ........