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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 48 मण्डपाकार वृक्ष के नीचे आकर विश्राम करने लगा। सेवकों ने देखा, मालिक के भोजन करने का समय आ गया है, भोजन परोसना चाहिए । सेवक उत्तम रसवती लाते हैं। नयसार को कहते हैं- "स्वामी भोजन कीजिए ।" हां, भूख बहुत तेज लग रही है लेकिन कोई अतिथि आ जाये तो उसको भोजन करवाकर तब भोजन करूंगा ।
"भयंकर जंगल........ यहां तो मनुष्य का चेहरा दिखना भी मुश्किल है। यहां .......! बात तो ठीक है लेकिन मार्ग भूला कोई पथिक आ जाये तो थोड़ा इन्तजार कर लेता हूं।" नयसार ने कहा । इन्तजार करते हुए कोई अतिथि आये तो शुभ भाव से अन्न दान दूं....... इतने में ही "अरे! ये श्वेत वस्त्रधारी कौन आ रहे हैं? सेवक- देखकर, हां-हां कोई दिखाई दे रहे हैं। घूरकर - अरे ये तो जैन साधु आ रहे हैं। लगता है, मार्ग विस्मृत हो गया है। ओह! पसीने से शरीर लथपथ बन रहा है। चेहरा.......... वह भी थकान के कारण मुरझा रहा है। आंखें....... मानो कुछ खोज रही हैं। इस भीषण गरमी में नंगे पांव, नंगा सिर, वस्त्र - पात्र उठाकर आने वाले तपस्वियों का स्वागत करना चाहिए। सहसा उठकर, मुनिराज को पास आया देखकर, पधारिए आपका स्वागत है । इस भीषण गरमी में भयंकर जंगल में आपका पदार्पण कैसे हुआ? हम हमारे स्थान से एक सार्थ व्यापारी समूह के साथ रवाना हुए। एक ग्राम आया। हम भिक्षा लेने गांव में गये। अन्तराय कर्म के उदय से वहां भिक्षा नहीं मिली। पुनः लौटकर आये तो वह सार्थ चला गया। हम पीछे-पीछे चलकर आये, लेकिन सार्थ नहीं मिला। हम यहां पहुंच गये -मुनियों ने कहा ।
ओह ! कितना निष्ठुर सार्थ! जिसे पाप की परवाह नहीं । आपको भी बीच मार्ग में छोड़ दिया । जरा भी मानवता नहीं, पर.......
मेरा तो प्रवल पुण्योदय है कि आप जैसे महान् पुरुषों के अतिथि सत्कार का लाभ मिलेगा। आइये, पधारिये! पहले भोजन, जल ग्रहण कीजिए । नयसार ने कहा ।
जहां भोजन सामग्री रखी है, वहां नयसार मुनिवर को ले जाता है। शुभ भाव से दान देता है और निवेदन करता है- आप पहले आहार कर लीजिए, फिर आपको नगर का मार्ग बतला देता हूं।