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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर
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पंचम अध्याय
प्रत्येक प्राणी का जीवन दायित्वप्रधान होता है । दायित्व का श्रेष्ठ रीति से निर्वहन करने वाला व्यक्ति उन्नति के चरम शिखरों को चूम लेता है। दायित्वों से मुख फेरने वाला निष्कृटतम जीवन जीकर अपने दिव्यतम जीवन को कचरे के ढेर में तबदील कर देता है। दायित्व की जन्मभूमि है माता । माता यदि दायित्व का निर्वहन करने में परिपूर्ण प्रयास करे तो परिवार अनिर्वचनीय प्रेम-पारावर में निमग्न बन सकता है। उसके लिए आवश्यकता है बलिदान करने की। अपनी निर्बन्ध कल्पनाओं को विराम देकर मन के अश्व को कर्तव्य के रथ में जोतने के प्रयास करें तभी यह संभव है । महारानी त्रिशला इसका जीवन्त उदाहरण है। जिन्होंने महावीर को महावीर बनाने के लिए किस-किस प्रकार अपने जीवन को ढालने का प्रयास किया । उठना, बैटना, सोना, चलना, फिरना, खाना, विश्राम करना सब-कुछ सन्तान के हित को देखकर करती हैं। बड़ी तन्मयता से सावधानीपूर्वक गर्भस्थ शिशु की परिपालना कर रही हैं । इन्तजार है नन्हे सारथि से साक्षात्कार का ।
भगवत् जन्म
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ऋतुराज बसन्त का आगमन अत्यन्त आनन्ददायक लग रहा है । आम्रवृक्षों ने मंजरियों के गजरों को पहन कर मारवाड़ की महिलाओं के गजरों की छटा परास्त करने का स्तुत्य प्रयास किया है। कोयल ने मंजरियों का रसास्वादन कर अपने कण्ठों में मधुर स्वर का संचार कर दिया है । सम्पूर्ण पादपों ने पुराने पत्ते आदि को पृथ्वी पर दान कर नया परिवेश धारण कर लिया है। भूमि ने नई हरीतिमा की चादर ओढ़कर नववधू का रूप धारण कर लिया है। मानो मदमाते यौवन से वह आगत् अथिति का स्वागत करने को तत्पर है।
चैत्र मास की मधुर - शीतल चन्द्रिका मन-मन्दिर को उद्दीप्त बना रही है । त्रयोदशी की वह पावन रात्रि!
महारानी त्रिशला शय्या पर सोई हैं। अनुभूति के आलोक में ज्ञात हो रहा है कि प्रसव सन्निकट है। महारानी के पास खड़ी परिचारिकाएं पूछती हैं- रानी साहिबा ! क्या लग रहा है?
अच्छा ही कुछ होने वाला है! महारानी ने कहा ।