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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 21
शिशु संरक्षण – तृतीय अध्याय
नारीत्व से मातृत्व की यात्रा अविस्मरणीय होती है। श्रेष्ठ नारी को मातृत्व के प्रथम सोपान पर कदम रखते ही दायित्वबोध होने लगता है। वह अपने सुखद संसार की परिकल्पना में बलिदान करने में तत्पर बन जाती है। सन्तान शूरवीर, पराक्रमी, शीलादि गुण समन्वित, कुल के गौरव में चार चांद लगाने वाली, विनयवान्, सेवा-गुण से ओतप्रोत होनी चाहिए। ऐसा चिन्तन करने वाली माताओं ने एक-एक शिशु को घड़ने में कितनी जबरदस्त सावधानी, विवेक और संयम रखा, इसका इतिहास साक्षी है। उन्हीं माताओं में से एक हैं महारानी त्रिशला, जो कि अपने गर्भस्थ शिशु को अलौकिक ज्योतिपुंज बनाने में संलग्न हैं।
वह गर्भस्थ शिशु को संस्कारित जीवन देने हेतु गर्भ-संरक्षण बड़ी सावधानीपूर्वक कर रही हैं। माता जैसा आहार, विहार, चिन्तन, हलन-चलन आदि-आदि क्रियाएं करती है, उन सबका सन्तान पर प्रभाव हुए बिना नहीं रहता। गर्भवती स्त्री को किस ऋतु में कैसा आहार करना चाहिए, इस सम्बन्ध में कहा है कि वर्षा ऋतु में नमक, शरद ऋतु में पानी, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर ऋतु में खट्टा, वसंत में घी एवं ग्रीष्म ऋतु में गुड़ का सेवन करना चाहिए।'
वाग्भट्ट ने कहा है कि गर्भवती स्त्री वातप्रधान आहार करती है तो गर्भस्थ बालक कुबड़ा, अंधा, मूर्ख और बावना होता है। यदि पित्तप्रधान आहार करती है तो बालक के सिर में टाट और रंग पीला होता है। यदि कफप्रधान आहार करती है तो वह बालक श्वेत-कुष्ठी होता है।
अत्यन्त उष्ण आहार करने से गर्भस्थ शिशु बलवान नहीं होता। शीत आहार करने से शिशु के शरीर में वायु का प्रकोप अधिक रहता है। ज्यादा नमक वाला आहार करने से नेत्रज्योति क्षीण हो जाती है। अत्यन्त स्निग्ध घृतादि वाला आहार करने से पाचन कमजोर हो जाता है।
गर्भवती स्त्री यदि दिन में शयन करती है तो सन्तान आलसी व निद्रालु होती है। यदि नेत्रों के काजल लगाती है तो दृष्टि-विकृत