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अपश्चिम तीर्थकर महावीर 232
प्रयाण कर गया।
प्रभु वहां से विहार करके चम्पानगरी में स्वातिदत्त नामक ब्राह्मण की अग्निहोत्री शाला में वारहवां चातुर्मास करने के लिए पधारे और चौमासी तप के प्रत्याख्यान कर लिये । वहां प्रत्येक दिन पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दो यक्ष प्रभु की सेवा-भक्ति करने के लिए आते थे । स्वातिदत्त इस दृश्य को देखकर चिन्तन करने लगा कि ये देवार्य बहुत बड़े ज्ञाता दिखते हैं इसलिए दोनों यक्ष प्रतिदिन इनकी सेवा - भक्ति करने के लिए आते हैं तो मुझे भी आत्मा के विषय में कुछ जिज्ञासा है अतः मैं भी इनसे अपनी जिज्ञासा का समाधान कर सकता हूं। ऐसा चिन्तन कर वह एक दिन प्रभु के पास गया और विनयपूर्वक पूछने लगा- भगवन्! इस शरीर में जीव कौन है? प्रभु बोले कि हमें जो यह प्रतीत होता है कि मैं हूं, बस वही जीव है। वह जीव कैसा है? भगवन्! स्वातिदत्त ने पूछा । भगवन् बोले- हे द्विज ! शारीरिक अवयवों से भिन्न और अत्यन्त सूक्ष्म है ।
भगवन! सूक्ष्म का क्या तात्पर्य है । स्वातिदत्त ने पूछा । स्वातिदत्त ! जो इन्द्रियों से अग्राह्य और अरूपी है वह जीव है। स्वातिदत्त- भगवन्! प्रदेश क्या है?
महावीर - स्वातिदत्त प्रदेश उपदेश है । वह दो प्रकार का है। यथा - धार्मिक और अधार्मिक ।
स्वातिदत्त - भगवन्, प्रत्याख्यान कितने प्रकार का है? महावीर - स्वातिदत्त, प्रत्याख्यान दो प्रकार का है- मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान ।
इस प्रकार स्वातिदत्त ने प्रभु से जीव का स्वरूप समझा और भक्ति करके लौट गया । प्रभु ने भी उसे भव्य जानकर ही प्रतिबोध दिया 24 | चार माह कर्मों की निर्जरा करते हुए व्यतीत हुए। प्रभु चातुर्मास सानन्द सम्पन्न कर जृंभक गांव पधारे। वहां शक्रेन्द्र ने प्रभु की भक्ति करने के लिए नाट्यविधि बतलाई और वन्दन - नमस्कार करके निवेदन किया - जगत्पति, अब आपको शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला है । ऐसा कहकर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया ।
भगवान वहां से विहार करके मेंढ़क ग्राम पधारे। वहां चमरेन्द्र