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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 225 आगे-आगे सेठ चल रहा है, पीछे-पीछे वसुमति । चलते-चलते सेठ धनावह का घर आ गया। घर पर जाकर सेठ ने वसुमति से पूछाबेटी! तुम्हारा नाम क्या है? तुम किसकी कन्या हो? तुम्हारे स्वजनादि कहां है। मैं तुम्हारा पितातुल्य हूं। तुम अपनी सारी हकीकत कह डालो। वसुमति सेठ के प्रश्नों का चुपचाप श्रवण कर रही थी। तब पुनः सेठ ने कहा- बोलो बेटी! यहां किसी बात का भय नहीं है लेकिन वसुमति अपनी उच्च कुल की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए कुछ भी नहीं बोली, मौन रही। तब सेठ ने सोचा कि यह कुलीन कन्या कुछ कहना नहीं चाहती। तब क्या करना है अधिक पूछकर। इसे ज्यादा कहना उचित नहीं। यों सोचकर अपनी धर्मपत्नी मूला सेठानी से कहा कि यह कन्या अपनी ही लड़की है। इस सुकुमार बाला का तूं बड़े यत्न से लालन-पालन करना । मूला ने पति-वचनों को स्वीकार किया। वह लड़की मूला सेठानी के यहां पर निरन्तर बढने लगी। वहां उसका विनय, व्यवहार और सहनशील, शीतल स्वभाव देखकर सेठ ने उसका नाम चंदना रख दिया।
बालचन्द्र की तरह चन्दना मूला सेठानी के वहां वृद्धिंगत होने लगी। कामकाज में अत्यन्त चतुर वह सभी के मन को जीतने लगी। निरन्तर उसके यौवन में निखार आने लगा। बसन्त की तरह कमनीय गात्र अत्यन्त मनोरम दिखाई देने लगा। सेठ धनावह का अत्यन्त विनय करने से वह सेठ को भी अपनी पुत्री की तरह प्यारी लगने लगी लेकिन उसका यौवन, तिस पर सेठ का वह दुलार देखकर मूला का मन अशान्त बनने लगा। चिन्तन चला- इस नवयौवना के साथ कहीं सेठ का कोई लगाव हो गया और सेठ ने इसे अपना लिया तो मेरा क्या होगा........... इस लड़की के कारण मेरा खानदान बदनाम हो जायेगा. ........... इसका रूप मेरे घर का रूप विकृत कर देगा । अब क्या होगा. ............ यह कांटा कैसे निकलेगा? इसको ज्यादा सिर पर चढाना उचित नहीं, किसी-न-किसी बहाने अब इसे घर से निकालना ही ठीक है। कैसे इसको घर से निकालूं ताकि सेठ भी नाराज न हो और मेरा काम भी बन जाये। इसी उधेड़बुन में नूला सेठानी दिन-रात उदास रहने लगी।