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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 218 रोष का परित्याग कर तुझे छोड़ रहा हूं। तूं अब खुशी-खुशी चमरचंचा में जाकर अपनी समृद्धि का उपभोग कर सकता है। ऐसे चमरेन्द्र को आश्वस्त कर पुनः प्रभु को वन्दन-नमस्कार कर शक्रेन्द्र लौट गये।
शक्रेन्द्र लौट गये हैं यह जानकर चमरेन्द्र सूर्यास्त होने पर जैसे उल्लू निकलता है वैसे प्रभु के चरणों के नीचे से निकला। प्रभु को अंजलि जोड़कर इस प्रकार बोला कि- सब जीवों को अभयदान देने वाले भगवान, आप मुझे प्राण देने वाले हैं। आप तो भयंकर संसार अटवी में परिभ्रमण करने वाले प्राणियों को भी मुक्त करते हैं तो आप की शरण लेने से मैं वज्र से मुक्त हुआ इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रभो! मैंने पूर्व भव में अज्ञान के कारण बालतप किया इसलिए मैं अज्ञान सहित असुरेन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ। इसी अज्ञान के वशीभूत मैं शक्रेन्द्र से युद्ध करने गया लेकिन मैं आपकी शरण लेकर बहुत कृतार्थ हुआ हूं, बाल-बाल बच गया हूं। हे करुणानिधे! यदि पूर्वभव में मैं आपकी शरण लेता तो अच्युतेन्द्र या अहमिन्द्र बनता अथवा इन्द्रत्व की मुझे अब क्या आवश्यकता? अब तो मुझे आप जैसे नाथ मिल गये हैं तो मुझे सब-कुछ प्राप्त हो गया है। ऐसा कहकर श्रद्धापूर्वक प्रभु को नमस्कार करके चमरेन्द्र चमरचंचा नगरी में चला गया। प्रभु ध्यानस्थ हैं
और चमर अपनी राजधानी पहुंच गया है। वह अपनी सभा में सिंहासन पर बैठा है। लज्जा से मुखकमल नीचा हो गया है तब सामानिक देव चमरेन्द्र से पूछते हैं- क्या इन्द्र को आपने परास्त कर दिया? चमरेन्द्र ने कहा 'नहीं, तुमने जैसा इन्द्र के लिए बताया था वह वैसा ही शक्ति-सम्पन्न है लेकिन उस समय अज्ञानवश मैंने उसकी शक्ति को नहीं पहचाना । मैं तो वैसे ही सौधर्म देवलोक में चला गया जैसे सिंह की गुफा में सियाल जाता है। वहां के आभियोगिक देव मेरा कौतुक देखने के लिए उत्सुक बने इसलिए उन्होंने मुझे नहीं रोका, जाने दिया तब शक्रेन्द्र को बहुत-कुछ अपशब्द बोले । शक्रेन्द्र ने मुझे प्रत्युतर देने के लिए मुझ पर वज्र छोड़ा। उससे भयभीत बना मैं प्रभु वीर की शरण में जैसे-तैसे पहुंचा तब शक्रेन्द्र ने मुझे जीवित छोड़ दिया, तभी मैं यहां आ पाया हूं। अब तुम सब तैयार हो जाओ, अपन सब मिलकर वीर प्रभु के पास चलते हैं। उन्हें वन्दन-नमस्कार करके, नृत्यादि दिखला कर