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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 214 राग-द्वेषरहित होकर स्वयं ग्रहण कर लेता। इस प्रकार उसने बारह वर्ष तक अज्ञान तप करके तत्पश्चात् विभेल गांव की ईशान दिशा में अनशन तप ग्रहण कर लिया। एक मास का अनशन करके आयुष्य पूर्ण होने पर बालतप के प्रभाव से चमर-चंचा राजधानी में एक सागरोपम की आयुष्य वाला चमरेन्द्र हुआ।
__ उत्पन्न होते ही अवधिज्ञान रूप नेत्र से दूसरे स्थानों को देखने लगा। देखते-देखते अनुक्रम से उसका उपयोग ऊर्ध्व भाग की ओर लगा। वहां उसने प्रथम देवलोक के इन्द्र सौधर्मेन्द्र को अवधिज्ञान से देखा । सौधर्मेन्द (शकेन्द्र) अपने सौधर्मावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में बैठे हुए थे। महर्द्धिक, वजधारी शक्रेन्द्र को देखकर चमरेन्द्र के क्रोध का पार नहीं रहा। वे क्रोध से आगबबूला होकर अधीनस्थ देव-देवियों को कहने लगे- अरे! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाला यह कौन दुरात्मा अधम देव मेरे मस्तक पर बैठकर विलास कर रहा है? तब चमरेन्द्र के उत्तर दिशा में रहने वाले सामानिक देव हाथ जोड़कर निवेदन करने लगे कि हे स्वामिन! ये महापराक्रमी और प्रचंड शासन करने वाले सौधर्म कल्प के इन्द्र हैं। उसे श्रवणकर चमरेन्द्र को और अधिक क्रोध उत्पन्न हुआ और वह चमरेन्द्र भृकुटी चढ़ाकर, भयंकर मुखवाला होकर, नासिका के उच्छवास से (फुकार से) चमर को उड़ाता हुआ बोला- अरे देवो! तुम मेरे पराक्रम को जानते नहीं इसीलिए तुम उसकी प्रशंसा करते हो। अब मैं इन्द्र को परास्त कर मेरा अतुल बल दिखाऊँगा, तब तुम्हें मेरे बल-वीर्य का ज्ञान होगा।
वह दैवयोग से ऊँचे स्थान पर पैदा होने से बड़ा थोड़े ही हो गया। हाथी की पीठ पर बैठने मात्र से क्या कौआ बड़ा होता है। जैसे सूर्य उदित होने पर अंधकार नष्ट हो जाता है वैसे ही मेरे रहते अब शक्रेन्द्र रह नहीं पायेगा। चमरेन्द्र की इस बात को श्रवण कर सामानिक देवों ने पुनः कहा- हे स्वामिन! पूर्व पुण्योपार्जन से शक्रेन्द्र देवों का अधिपति है, उसकी समृद्धि और पराक्रम आप से विशिष्ट है इसलिए आप उनसे युद्ध करने मत जाइये, अन्यथा यदि उन्होंने अपना पराक्रम दिखाया तो मेघ के सामने जैसे अष्टापद.पशु नहीं ठहरता, वैसे स्वामिन् भयभीत होना पड़ेगा इसलिए आप यहीं रहकर सुखोपभोग करते हुए,