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________________ 196 अपश्चिम तीर्थकर महावीर चूहे नखों से, दांतों से, मुख से और हाथ से प्रभु के अंगों को काटने लगे और उन पर मूत्र करके गात्र को क्षार से व्याप्त करने लगे। उससे भी भगवान के ध्यान में किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं आया । 9. तब क्रोध से भूत बने हुए एक मूसल जैसे तीक्ष्ण दांत वाले हस्ति की विकुर्वणा की । वह मानो अपने पैर पटकने से पृथ्वी को झुका लेगा और ऊँची की हुई सूंड से ग्रह-नक्षत्रों को नीचे गिरा देगा। ऐसा हाथी भगवान के समीप दौड़ा आया । सूंड में प्रभु को उठाया और आकाश में उछाल दिया और तीक्ष्ण दांतों से प्रभु का शरीर क्षत-विक्षत हो जाये इस कारण पुनः अपने दांतों द्वारा भगवान के शरीर को झेला और प्रभु को काटने लगा। ऐसा काटा कि प्रभु के वक्षस्थल से अग्नि के समान कण निकलने लगे। भयंकर वेदना होने लगी, लेकिन प्रभु तनिक भी विचलित नहीं हुए । 10. तब उसने एक दुष्टा वैरिणी जैसी हथिनी की विकुर्वणा की। उसने विशाल मस्तक और दांतों से प्रभु के शरीर को भेदने का प्रयास किया और विषवत् अपने मूत्र को घावों पर नमक जैसा छिटका, लेकिन वीर प्रभु शांत - प्रशांत बने रहे । 11. अब उस अधम देव ने मगरमच्छ जैसी दाढ़ों वाले पिशाच के रूप की विकुर्वणा की । ज्वालाओं से परिपूर्ण उसका विस्फारित मुख प्रज्वलित अग्निकुण्ड के समान परिलक्षित होता था । उसकी भुजाएं यमराज के घर जैसे ऊँचे किये हुए तोरण स्तम्भ जैसी थी । उसकी जंघा और उरु ऊँचे ताड़ वृक्ष जैसे थे । चर्म वस्त्र धारण करता हुआ, अट्टहास करता हुआ और किल-किल शब्द करता हुआ, फुफकार करता हुआ वह पिशाच हाथ में बर्छा (तलवार) लेकर भगवान पर उपद्रव करने लगा, लेकिन वह भी क्षीण तैल वाले दीपक की तरह शीघ्र परास्त हो गया । 12. तब उस निर्दयी देव ने बाघ का रूप बनाया और पूंछ से भूमि को फटकारता हुआ और अपने शब्दों की चीत्कार से भूमि और आकाश में क्रन्दन पैदा करता हुआ वह व्याघ्र वज्र जैसी दाढ़ों से और त्रिशूल जैसे नखाग्रों से शरीर को काटने लगा लेकिन यह प्रयास भी सर्वथा निष्फल हुआ ।
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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