________________
अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 191 उद्देशक दस में तेजोलेश्या के पुद्गलों को अचित्त कहा है। इस प्रकार भगवान का यह कार्य धर्मरूप था, न कि पापरूप।
विशेष विस्तार के लिए देखें(क) सद्धर्म मण्डनम्; आचार्य श्री जवाहर; प्रका. जवाहर साहित्य समिति; भीनासर (बीकानेर); द्वितीय संस्करण 1966; पृ. 273-84 (ख) लेश्या कोश; सम्पा. मोहनलाल बांठिया, श्रीचन्दचोरडिया; प्रका. मोहनलाल बांठिया 16सी, डोवर लेन, कोलकाता 29; 1966; पृ. 41-42 (ग) आयुर्वेद महावीर; नेमिचन्द पुगलिया; मुद्रक एजूकेशनल प्रेस, फड़ बाजार, बीकानेर; संवत 2031; गाथा 69 5. कहन्नं भंते! संखिलविउल तेउलेस्से भवइ? तए णं अहं गोयमा! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी जेणं गोसाला! एगाए सग हाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासएणं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय जाव विहरइ । से णं अन्तो छण्हं मासाणं संखित्तविउल तेउलेस्से भवइ।
भगवती शतक; 15 यहां संक्षिप्तविपुल का तात्पर्य अभयदेव सूरि ने इस प्रकार बताया है:संक्षिप्त- अप्रयोग काल में संक्षिप्त। विपुल- प्रयोग काल में विस्तीर्ण । 6. तिहिं ठाणेहिं सम्मणे निग्गंथे संखितविउलतेऊलेस्से भवइ, तंजहा आयावणयाए, खंतिखमाए, अपाणगेणं तवो-कम्मेणं ।
स्था. 3/उद्दे. 3 7. (क) भगवता कहितं-जहा निफ्फण्णो, तं एवं वणफ्फईण पउट्टपरिहारो, पउट्टपरिहारो नाम परावर्त्य परावर्त्य तस्मिन्नेव सरीरके उववज्जंति तं, सो असद्दहंतो गंतूणं तिलसेंगलियं हत्थे पफ्फोडेत्ता ते तिले गणेमाणे भणति एवं सव्वजीवावि पयाट्टपरिहारंति।
आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 299 8. आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 299 9. आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 299 10. (क) त्रिषष्टि श्लाका पु. चा.; पृ. 75
(ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि; पृ. 288 (ग) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 300