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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 184 ने कहा- पूछिये । तब लड़का बोला- बताओ, तुम्हारे एक लड़का था? वेश्या ने कहा- हां।
लड़का - तब उसे कहां छोड़ा? वेश्या – वृक्ष के नीचे। लड़का - क्यों? वेश्या - चोरों द्वारा मृत्यु का भय दिखाने पर।
उस लड़के ने वेश्या की आद्योपान्त हकीकत पूछी। वेश्या ने सब सत्य-सत्य बतलाई । वह लड़का वहां से उठा, स्वयं के घर गया। अपने माता-पिता से हकीकत पूछी। जब उन्होंने सत्य बात नहीं कही तब वह वहां से निकलने लगा। उसे जाता हुआ जानकर माता-पिता ने सत्य बात बतला दी। उसे जानकर वह पुनः चम्पा गया और वेशिका से सारी बात कही। जब वेशिका ने अपने पुत्र को जाना तब वह रुदन करने लगी कि बेटा! अब तूं मुझे इस कुकर्म से बचा ले। तब उस लड़के ने उस वेश्या को, जिसने वेशिका को खरीदा, उसे बहुत-सारा धन देकर छुड़ा लिया और अपने गांव ले गया। वहां मां के साथ रहने लगा। वेशिका-पुत्र होने से लोग उसे वेशिकायन कहने लगे। वह वेशिकायन अब विषयों से विरक्त बन गया। अपनी मां से वृत्तान्त जानकर वह उदासीन रहने लगा। संयोग मिलने पर उसने तापस व्रत ग्रहण कर लिया। धीरे-धीरे वह अपने शास्त्राध्ययन में कुशल एवं आचरण में प्रवीण बन गया। एकदा वह तापस घूमता-घूमता कूर्मग्राम में प्रभु महावीर से पहले ही पहुंच गया था। कूर्मग्राम के बाहर वह तपस्वी वट वृक्ष की जड़ों जैसी दीर्घ जटावाला, मध्याह्न के समय ऊँचे हाथ करके सूर्याभिमुख होकर आतापना लेता था। वह स्वभाव से विनयवान, दयालु, धर्म-ध्यान में तत्पर था। उसके सिर में बहुत जुएं पड़ी हुई थीं। वे जुएं सूर्य तप से जैसे ही जमीन पर गिरतीं वह तपस्वी उन पर अनुकम्पा करके पुनः सिर में डाल लेता | जब गोशालक ने उसे इस प्रकार जुएं डालते हुए देखा तब बोला- अरे तपस्वी! तूं तत्त्वज्ञाता है अथवा जुओं का शय्यातर? तूं स्त्री है या पुरुष? तूं अल्पज्ञ दीख रहा है। इस प्रकार कहने पर भी वह तपस्वी मौन रहा लेकिन गोशालक तो अपने क्रूर स्वभाव के कारण उसे बार-बार कहता ही रहा। तब उस