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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 177 रूप में विहार करके प्रतिमा धारण किये शकटमुख उद्यान में हैं। इन सत्य वचनों को सुनकर सेठ ने अपने दुष्कृत्य के लिए मिच्छामि दुक्कड़ किया और तीन बार प्रदक्षिणा देकर प्रभु को वन्दन कर ईशानेन्द्र और वागुर सेठ अपने-अपने स्थान को लौट गये।
वहां से विहार कर प्रभु उष्णाक ग्राम की ओर पधार रहे थे। रास्ते में नवविवाहित, विकृत आकृतिवाला वर-वधू का जोड़ा मिला। उन्हें देखकर गोशालक बोला- देखो तो, इन दोनों का कैसा मोटा पेट है, कितने लम्बे दांत हैं। होंठ कैसे लटक रहे हैं, नाक एकदम पिचका हुआ है। कैसी विधाता की खूबी है कि दोनों को एक जैसा बनाया है। इस प्रकार उनकी हंसी उड़ाता हुआ गोशालक बार-बार उनके सामने जाकर कहने लगा। तब उन नवोढा युगल के साथ वाले व्यक्ति कोपायमान हो गये और गोशालक को बांध कर फेंक दिया। तब गोशालक ने प्रभु से कहा- हे स्वामी! मुझे इन लोगों ने बांध दिया है फिर भी आप मेरी उपेक्षा कर रहे हैं। दूसरे लोगों पर तो आप अत्यन्त दया करते हैं और मुझ पर आपकी कोई कृपा नहीं है। तब सिद्धार्थ ने कहा- तूं अपनी ही चपलता और दुश्चरित्र से दुःख पाता है। प्रभु आगे चल दिये लेकिन करुणा की निर्मल धार से संप्रेरित हो थोड़ी दूर जाकर रुक जाते हैं। तब वर-वधू के साथ वाले व्यक्तियों ने कहादेखो, देवार्य इसकी (गोशालक की) राह देख रहे हैं। यह उनका छत्रधारी, पीढधारी या सेवक है इसलिए इसको छोड़ देना चाहिए। तब उन व्यक्तियों ने भगवान के पुण्य प्रताप से प्रेरित होकर उसे बंधनमुक्त कर दिया। प्रभु गोशालक के साथ विहार करते हुए अनुक्रम से गोभूमि पधारे। यहां गोशालक ने एक ग्वाले से पूछा- अरे वीभत्स मूर्तिवाले ओ! अरे म्लेच्छ! अरे! अपने घर में शूरवीर ओ वाले! यह मार्ग किधर जात ? तब ग्वाले ने इस प्रकार के कर्णकटु शब्दों को सुनकर कहा, अरे मुसाफिर! तूं दिना कारण किसलिए हमको गाली दे रहा है। अरे चार! तुम्हारा नाश हो जाये !
गोलमा- अरे दारीयुत! अरे पा! यदि तुम हर दलना " सहन नहीं कर पाते रविका गुस्सा क रने ली दी
लेख हो ।