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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 153 के लिए वहां शून्यगृह में आया। उसने भी पूछा कि इस शून्यगृह में कोई ब्राह्मण, मुसाफिर या साधु तो नहीं है, यदि है तो हम अन्यत्र जा सकते हैं। जब कोई प्रत्युत्तर नहीं आया तब वह कुमार रतिक्रीड़ा में समासक्त हो गया। जब क्रीड़ा कर वहां से लौटने लगा तो गोशालक जोर-जोर से हंसने लगा तब स्कन्द पुनः आया और बोला कि यह हमारी गुप्त क्रीड़ा देखकर पिशाच की तरह कौन हंस रहा है? क्रोध से आवेष्टित स्कन्द ने आखिरकार गोशालक को पकड़ लिया और उसे बहुत पीटा। पीटकर स्कन्द तो चला गया तब गोशालक बोला- भगवान् आपके समाने मुझ निर्दोष को पीटा और आपने मेरी रक्षा नहीं की? तब सिद्धार्थ बोले- तूं अपनी ही भाषा पर नियन्त्रण नहीं होने से पीटा जाता है। गोशालक शांत हुआ। रात्रि व्यतीत हुई। प्रातःकाल प्रभु विहार करके कुमार सन्निवेश पधारे।
कुमार सन्निवेश में चम्पक रमणीय उद्यान में प्रतिमा धारणकर प्रभु विराजमान हुए। उसी गांव में धन-धान्य की समृद्धि वाला एक कुपनय नामक कुम्हार रहता था। उसकी मदिरापान में बड़ी आसक्ति थी। उस समय उस कुम्हार की शाला में पार्श्वनाथ भगवान् की परम्परा के मुनि चन्द्र आचार्य, जो कि बहुश्रुत थे, वे अपने शिष्य वर्ग सहित पधारे। उन्होंने उत्कृष्ट संयम पालन की इच्छा से अपने शिष्य वर्धनसूरि को गच्छ का भार सौंपकर जिनकल्प की उत्कृष्ट साधना स्वीकार की। वे तप, सत्त्व, श्रुत, एकत्व और बल- ये पांच प्रकार की तुलना करने के लिए समाधिपूर्वक स्थित थे।
उधर गोशालक क्षुधा से व्याकुल हो गया। मध्याह्न के समय उसने प्रभु से कहा- भगवन्! भिक्षा लेने चलिए, मुझे भूख लग रही है। तब सिद्धार्थ ने कहा कि आज तो उपवास है। यह श्रवण कर भूख से व्याकुल गोशालक भिक्षा के लिए निकला। रास्ते में उसे रंग-बिरंगे वस्त्र धारण करने वाले, पात्रादि रखने वाले भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य मिले। तब कौतुहल से गोशालक ने पूछा- आप कौन? उन्होंने कहा हम पार्श्वनाथ भगवान् के शिष्य हैं। तब गौशालक ने कहा- तुम मिथ्या भाषण करते हो। तुम्हें धिक्कार है। तुम वस्त्रादिक ग्रंथि को धारण करते हो तो निर्ग्रन्थ कैसे हो सकते हो? केवल आजीविका के लिए ही