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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 3 मरीचियों को विकीर्ण करता हुआ आनन में प्रविष्ट होता है। (7) सूर्य- चमचमाती किरणों के समूह वाला, प्रगाढ़ तमस् को दूर करने वाला, अत्यन्त तेजोमय रक्ताभास से रंजित दिनकर दूर क्षितिज से आकर अन्तर में समाहित हो जाता है। ध्वजा- दिग्-दिगन्त में फहराती हुई, उत्तम कौशेय वाली, स्वर्ण-यष्टि पर अवलम्बित श्वेत सिंह के लांछन से युक्त पताका प्रवेश करती है। कुम्भ-कलश- रत्नजड़ित कुम्भ-कलश, सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला, व्योम से आगत प्रवेश करता है। पद्मसरोवर- विकसित कमल-समूह से परिपूर्ण, सुगन्धित-शीतल नीर वाला, अनूठी आभायुक्त सरोवर मानो हृदय में चित्रपट की भांति उतर रहा है। क्षीरसमुद्र- दुग्ध सदृश धवल जल से आप्लावित, चपल वीचियों से अनुप्राणित, चित्ताकर्षक क्षीरसमुद्र उरस् में प्रविष्ट हो प्रवाहित होने लगा। (12) विमान- रत्न संचय से जगमगाहट करता हुआ, दुंदुभियों की निर्घोष ध्वनि से युक्त दिव्य देव-विमान प्रविष्ट हुआ। (13) रत्न-राशि- निर्मल, उज्ज्वल रत्नों का ढेर गगन से आकर मेरे मुख में प्रविष्ट हुआ। (14) अग्नि- निर्धूम, तेजस्विल, प्रज्वलित अग्नि की शिखा प्रविष्ट हुई। कितने मनमोहक थे वे स्वप्न-समूह, जिन्हें स्मरण कर मन आह्लाद से संभृत हो रहा है। ___स्वप्न-दर्शन के पश्चात् अर्धमीलित नयनों से देखा, वातावरण बड़ा सौम्य लग रहा था । मन आनन्द-पारावार में निमग्न बन रहा था। ऐसे शुभ स्वप्न आज के पहले कभी नहीं देखे। क्या श्रेष्ठतम उपलब्धि होगी? क्या सम्प्राप्ति होगी? जाऊ महाराज के पास ........ वे तो .... ...... समाधान करेंगे ही .............. | __ चिन्तन की चांदनी में मधुर स्मरण करती हुई शय्या से उठी। पादपीठ पर आरूढ हुई। नीचे उतरी। मन्द-मन्द आह्लादयुक्त मदमाती चाल से चलकर राजा के शयनकक्ष में गयी। महाराज! वे तो निद्राधीन
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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