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अपश्चिम तीर्थकर महावीर
त्याग- वैराग्यपरक बतलाया था। में उस समय नहीं समझ पाई लेकिन आज. ...... ज्ञात हो रहा है वास्तव में वर्धमान बचपन से ही वैरागी थे । इसी कारण वे लुभावने दृश्यों को देखकर भी मौन ही रहते थे । कामनाजन्य बातों में कभी उन्होंने रस नहीं लिया। वे स्वयं में ज्यादा ही लीन रहते थे.....|
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वर्धमान सामान्य पुरुष नहीं । वस्तुतः वे आत्मवीर हैं, महावीर हैं, जो भांगों के मेले में भी अकेले रहने को तत्पर हैं। जो सभी सा नि-सामग्रियों के मध्य निर्लेप है । धन्य है ऐसे स्वामी को! उनका प्रत्येक व्यवहार प्रेरणादायी है। मेरा सौभाग्य है कि मैं उनकी अर्द्धांगिनी चनी...........चिन्तन की चांदनी में खोई यशोदा कब निद्रालीन हो जाती है, पता ही नहीं चलता ।
इधर वर्धमान जलकमलवत् निर्लेप बने एकाकी कमरे में रहते है । परिपूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए आत्मासाधना में लीन, स्नान, विभूषा श्रृंगारादि से रहित आत्म-जयी साधना कर रहे हैं। साधना करते हुए निरन्तर अपने जीवन को सजाने-संवारने का प्रयास कर रहे है। सबके बीच भी वर्धमान अकेले हैं। ऐसी ही साधना करते हुए उन्हें एक वर्ष व्यतीत हो जाता है।
लोकान्तिक देव प्रतिबंधित करते हैं कि सम्पूर्ण जगत् के कल्याण के लिये धर्मतीर्थ को प्रकट कीजिए । लोकान्तिक देवों की भावना जानकर कुमार वर्धमान ने वर्षीदान देना प्रारम्भ किया।'
कुमार कर्धमान का प्रतिदिन का क्रम बन गया दान देने का । दे प्रतिदिन सूर्योदय से एक प्रहर तक एक करोड आठ लाख स्वर्ण चाची को दान में देते थे। ये स्वर्णमुद्वा शक्रन्द्र के आदेशानुसार
देव ने कमान के खजाने में भर दी थी। अत प्रतिदिन दान देवर की वर्तमान नद लेते थे। इस प्रकार एक वर्ष तक निरन्तर पीएन में अररो लाख स्वर्ण मुद्राएं पान सोनिक नाजीर जनकर प्रतियोधित करने
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