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अधिक बल दिया है। पंच-महाव्रतों में अहिंसा के पश्चात् सत्य का ही स्थान है। भगवान महावीर अहिंसा और सत्य में अन्तर नहीं मानते । उनके विचारानुसार जहां अहिंसा है, वहीं सत्य है और जहां सत्य है, वहीं अहिंसा है।
पर सत्य क्या है ? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है । संसार में आदिकाल से सत्य है, और सदा रहेगा। विश्व के सभी बड़ेबड़े मनीषियों ने सत्य की परिभाषा के सम्बन्ध में अपने-अपने महत्वपूर्ण विचार प्रकट किए हैं । यद्यपि प्रत्येक की शब्दावली पृथक-पृथक है, पर सबका अर्थ एक ही है। सत्य के सम्बन्ध में सभी विचारक-मनीषी एक ही बात कहते हैं-"सत्य एक है, अविभाज्य है। जो सत् है, जिसका अस्तित्व है, वह सत्य है।" भगवान महावीर ने सत्य को स्पष्ट करते हुए कहा-'सत्य वही है जो वीतराग के द्वारा प्ररूपित है।'
'सत्य' का अधिक महत्व है। विश्व के सम्पूर्ण धर्मग्रन्थों में सत्य की प्रशंसा की गई है । गीता में सत्य की गरिमा का चित्रण इन शब्दों में किया गया है-'आत्मा सत्य और तप आदि से प्राप्त किया जाता है "सत्य से ही जय प्राप्त होती है। मिथ्यावादी कभी जय को प्राप्त नहीं होता। वह तो सदैव पराजय में ही रहता है। सत्यवादी पुरुष के परमधाम पहुंचने के लिए देवयान-मार्ग खुल जाता है।' उपनिषद में सत्य की महत्ता का चित्रण इन शब्दों में किया गया है-'सत्य का मुख ढंका है सोने के ढक्कन से । हे पूषन्, यदि तू सत्य का दर्शन करना चाहता है तो उसे खोल।' वाल्मीकि रामायण में सत्य का चित्रण इस प्रकार किया गया है-'धर्म को जाननेवाले लोग सत्य को ही
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