SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७४) मंद शास्त्री ने कतिपय मध्य कालीन जैन अपना कवियों की परिभवं अपभ्रश भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में जो कुछ अधुना ज्ञात है वह उसकी तुलना में नगण्य सा है जो कि अभी भी राजपुताना, गुजरात प्रादि के अंच भडारों मे दबा पड़ा है। राजस्थान, मध्यभारत, गुजरात, महाराष्ट्र, संभव. तया उतर प्रदेश मे भी, सर्वत्र, ६ठी शताब्दी पर्यन्त लगभग एक सहस्त्र वर्ष तक अपभ्र श भाषा का अभ्यास और प्रचलन बहुलता के साथ रहा प्रतीत होता है, सो भी विशेष कर जैनो द्वारा । अपभ्रंश कविता अपनी भाषा सम्बन्धी विशेषतामो के अतिरिक्त, छन्द शास्त्र, पालंकारिक प्रयोग, नीति तथा तत्कालीन जगत के निकटतम अनुवीक्षण से पोत प्रोत है । उद्योतन सूरि के शब्दो मे उसका शब्द प्रवाह पार्वतीय स्रोत की नाई द्र तवेग से प्रवाहित होता है। उसके युद्ध वर्णन अत्यन्त रोमाञ्चक और प्रेम भक्ति करुणा आदि कोमल भावो के चित्रण पाश्चर्यजनक रूप से सजीव होते है । यद्यपि अपभ्र श साहित्य का सम्बध प्राय करके उच्चवर्गों से है तथापि वह सार्वजनिक जीवन के विविध प्रगों को भली भाति प्रतिबिम्बित करता है। साहित्य के इस क्षेत्र में न केवल एक शुष्क भाषाविज्ञ को ही प्रचुर उपयोगी सामग्री उपलब्ध होती है वरन एक भावुक कलाकार अथवा कान्य रसिक को भी प्रति रुचिकर काव्यानन्द का प्रास्वादन प्राप्त होता है । भारतीय साहित्य मे कही अन्यत्र शब्द और भाव का, बाप सगीत और अन्तरग गेयतत्त्व का ऐसा सुन्दर सामजस्य उपलब्ध नहीं होता। साथ ही, लेखीय प्रमाण के रूप मे अपभ्र श तथा प्राचीन गुजराती कवियों की कृतियों का महत्त्व उनके पश्चाद्वर्ती महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि लेखको की रचनामो से कही अधिक है। (१) हमारे द्वारा सम्पादित जो इन्दु के मांगसार आत्मदर्शन की भूमिका तथा अनेकान्त १६४५; में प्रकाशित हमारा लेख 'नागभाषा और नाग सभ्यता' भी पठनीय है।
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy