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________________ 1 ( २ ) सुसम्पादित अनुवादित संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसे गूढ जैन पारिभाषिक तत्त्वज्ञान विषयक महान ग्रंथो के, जो कि यत्र तत्र संस्कृत गद्यांशों से अलंकृत नैयायिक शैली की प्रौढ प्राकृत मे है, प्रकाश मे आने से भारतीय साहित्य की एक महत्त्व पूर्ण नवीन शाखा अध्ययनार्थ प्रस्तुत हो गई है। उपरोक्त सस्करणों की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाओ मे अनेक ऐतिहासिक तथ्यों पर भी नवीन प्रकाश पड़ा है तथा और नवीन ऐतिहासिक शोध खोज को प्रोत्साहन मिला है। उपरोक्त सभी ग्रन्थो मे बहुत मी सामग्री ऐसी है जो दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदाय भेद स भी प्राचीनतर है। यदि उसकी तुलना नियुक्तियो आदि के साथ की जाय तो अनेक दिलचस्प तथ्यो के प्रकाश मे आने की संभावना है । दिगम्बरो एव श्वेताम्बरो का प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओ में निबद्ध विशाल - काय टीका साहित्य अभी तक मूल पाठो के अर्थी को समझने के लिये ही अध्ययन किया जाता रहा है । जो टीका ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके है उनमे से इने गिनो का ही आलोचनात्मक अध्ययन हुआ है । नियुक्तियो, चूरिगये तथा अन्य संस्कृत प्राकृत टीकाएँ भी ज्ञातव्य सूचनाओ के ऐसे गहन भंडार है जिनमे पूर्व पक्ष के प्रतिपादन के अतिरिक्त अनेक जैन अजैन ग्रंथो के उद्धरण, अनुश्रुतिये नीति वचन, उपदेशात्मक आख्यान उपाख्यान, तथा अनेक तत्कालीन सांस्कृतिक सूचनाएँ भी उपलब्ध होती है । किन्तु इन सब विषयो की व्यवस्थित छाट, गवेषणा' सकलन तथा यथोचित मूल्याकन अभी तक प्राय नही हो पाया । इनमे से अनेक ग्रन्थो की तिथिये ज्ञात है, प्रत उनमे वरिणत विषय कालानुक्रम की से भी महत्त्वपूर्ण है । अस्तु प्रो० विधु शेखर भट्टाचार्य ने दिखलाया कि गुणरत्न धर्म कीर्ति के प्रमाण वार्तिक से भली भांति परिचित था और उसने उक्त ग्रन्थ से अनेक उद्धरण भी दिये है । २ श्री पी० के० गोडे ने अपने आकपंक निबन्ध " शकराचार्य के पूर्ववर्ती जैन आधारो मे भगवत गीता" मे ऐसे उद्ध (१) अनेकान्त तथा जैना ऐंटेक्वेरी में प्रकाशित धवला का समय तथा स्वामी वीर सेन संबन्धी हमारे विभिन्न लेख । (२) इ० हि० क्या, १६, पृ० १४२.
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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