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प्रास्ताविक इस पुस्तकके सयोजक बा० पन्नालालजी बैन प्रवाल अपने चिरपरिचित मित्र हैं। आप बडे ही मेवाभावी और साहित्य मी सज्जन हैंसाहित्य सेवियो को अपनी सेवाएं प्रदान करनेमे सदा ही उदार एव परिश्रमशौल रहा करते हैं। कई वर्ष तक भाप वीर-सेवा-मन्दिरके मंत्री रह चुके हैं। इस पुस्तक का आयोजन भी आपके उक्त मवित्व-कालमे ही हुआ है। पुस्तक के प्रायोजनादि-सम्बन्धकी कुछ रोचक-कथा इस प्रकार है, जिसे उन पत्रोम जाना जाता है जिन्हे सयोजकबीने अपने पास सुरक्षित रख छोडा है____डा० माताप्रसादजी गुप्त एम० ए० प्रयाग सन् १९४३ मे 'हिन्वो पुस्तकसाहित्य' नामकी एक ग्रन्यसूची लिख रहे थे, जिसमे हिन्दीकी चुनी हुई पुस्तकोका परिचय उन्हें देना था और वह भी सन् १८६७ से १६४३ तक १०० वर्ष के भीतर प्रकाशित पुस्तकोका-लिखितका नही । नवम्बर १९४३ मे डा० साहब के तीन पत्र बा० पन्नालालजी (संयोजकजी) को प्राप्त हुए, जिनमे यह इच्छा व्यक्त की गई कि यदि हिन्दीके जैन ग्रन्थोकी कोई अभीष्ट सूची उनके पास तय्यार हो या वे तय्यार कराके दे सकें तो उसका उपयोग उक्त सूची में किया जा सकता है। इन पत्रो पर से सयोजकजीको हिन्दी जैन ग्रन्थोकी एक ऐसी सूची तय्यार करनेकी प्रेरणा मिली जिसमे वे ग्रन्थ भी शामिल थे जो मूलत भले ही सस्कृत-प्राकृतादि भाषाम्रो मैं हो परन्तु उनके अनुवादादिक हिन्दी भाषामे लिखे गये हो। तदनुसार उन्होने हिन्दी जैन ग्रन्थो की एक सूची नय्यार की और उसे देखने-जाँचने के लिये मेरे पास सरसावा वीर-सेवा-मन्दिर में भेज दिया। यह सूची अपने को जनवरी १९४४ के मंतमे प्राप्त हुई और उसे सस्था के विद्वान प० परमानन्दजीको जांच आदि के लिये सुपुर्द कर दिया गया । १० परमानंद जीने