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प्राथमिक
जैन संस्कृति की धारा बहुत प्राचीन और महत्त्वपूर्ण है। किन्तु दुर्भाग्यतः जैन धर्मानुयायी अपनी वस्तु को स्थिर रूप देने व उसे संसार के सम्मुख उपस्थित करने में बहुत शिथिल और दीर्घसूत्री रहे हैं। उदाहरणार्थ, जबकि वैदिक परम्परा के प्रथ कम से कम चार हजार वर्ष पुराने पाये जाते हैं, तब महावीर भगवान से पूर्व का कोई जैन साहित्य सुरक्षित नहीं है। भगवान महावीर की वाणी को उनके शिष्यो ने उन्ही के जीवन-काल मे द्वादशांग रूप रच लिया था, ऐसी जैन श्रु त-परम्परा है। किन्तु इसे कोई एक हजार वर्ष तक लिखित रूप नही दिया जा सका । दिगम्बर परम्परानुसार तो वह समस्त द्वादशांग श्रु त कोई छह सातसो वर्षों मे ही क्रमशः विस्मृत और विलुप्त हो गया, और जो रहा उसके आधार पर नये सिरे से षट्खडादि प्रथो की रचना की गई । श्वेताम्बर परम्परा में महावीर निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् उसके बचे खुचे प्रशो का सकलन कर उन्हें पुस्तको का रूप देने का प्रयत्न किया गया।
चीन देश मे प्रथो के मुद्रण का कार्य नौवी शती मे प्रारम्भ हो गया चा । यूरोप मे मुद्रण कार्य पन्द्रहवी शती मे तथा भारत में सोलहवी शती में पारम्भ हुआ । किन्तु जैव प्रथो का प्रकाशन सन १८५० से पूर्व का कोई नही पाया जाता । अभी अभी तक धार्मिक ग्रथो के मुद्रण का समाज में विरोध भी होता रहा है। आज सम्य ससार का उपलब्ध प्राचीन साहित्य प्रायः समस्त ही प्रकाशित हो चुका है और उसके प्रमुख भाग अन्य भाषाओ में भी मनुदित हो गये हैं । किन्तु एक जैन साहित्य ही ऐसा है जिसका प्रति प्रचुर भाग, नष्ट होते होते जो कुछ बचा है, वह अभी भी शास्त्र भडारो की अधेरी कोठरियो मे बन्द पड़ा है। यह दशा आज सभ्यता के विकास की दृष्टि से नितान्त शोचनीय है । हमारी साहित्यिक निधि का लेखा-जोखा लगाने मे और