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44 / महामन्त्र णमोकार एक वैज्ञानिक अन्वेषण होगा। मातृका-शक्ति का विवेचन परात्रिशका' में भी किया गया है
"अकारादि क्षकरान्ता मातका वर्णरूपिणी।
चतुर्दश स्वरोपेता बिन्दुनय विभूषिता॥" वर्णात्मक मातृकाओ की सख्या पचास है। वर्णमाला को स्थूल मातका के रूप में मान्यता प्राप्त है। वर्णमयी मातका-शक्ति है और अर्थमयी मातृका शुभात्मक क्रिया है। शास्त्रो में इस वर्णमयी मातृकापाक्ति को उच्चारण और अर्थछवियो के आधार पर चार प्रकार से वर्गीकृत किया है1 वैखरी
स्थूल मातृका 2 मध्यमा वाणी
सूक्ष्म मातृका 3 पश्यन्ती
सूक्ष्मतर मातृका 4 पग
सूक्ष्मतम मातका वैखरी-विशेष रूप से म्बर अर्थात कठिन होने के कारण इम वाणी विद्या को वैखरी कहा गया है। अथवा ख (कर्ण विवर) से मम्पक्त होने के कारण भी इसे वैखरी कहा जाता रहा है। विखर एक प्राणाश है, उससे प्रेरित होने के कारण भी इस वाणी को वैखरी कहा जाता है। मध्यमा-इस वाणो विधा मे वैखरी की अपेक्षा भावात्मकता ओर मूमता अधिक रहती है। पश्यन्ती-इसमे अपेक्षाकृत रूप से अर्धप्रणवता और व्य जकता की मात्रा मूक्ष्मतर होती है। इसे सामान्य व्यक्ति नहीं समझ सकता । परा-यह वाणी का सूक्ष्मतम रूप है। इसमे मातका शवित का अर्थविस्तार एव भावविस्तार चरम पर होता है। वर्णो की मातका शक्ति धीरे-धीरे बढते-बढते विन्दुनात्मक हो जाती है। यह वह अवस्था है जहा पहुचकर वाणी शब्द और वर्ण से हटकर केवल शन्य नादात्मक हो जाती है। इसी अवस्था में जीव का (मानव का) अपनी विशद्वात्मा से अन्तरात्मा से साक्षात्कार होता है। इमी को वेदान्त मे नाद ब्रह्म की सज्ञा दी गयी है।
उक्त विवेचन का मथितार्थ यह है कि मातका-शवित की पूर्णता स्थलता अथवा रूपात्मकता से भावात्मकता में परिणत होने में है। वाणी की यह अवस्था अनिर्वचनीय होती है। वास्तव में साहित्य की शब्दावली मे इसे वाणी की या मातका-शक्ति रम-दशा कहा जा सकता है। उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि इन्ही स्वर, व्यजन एव बिन्दु, विसर्ग तथा मावाओ वाली मातृका-शक्ति ही ज्ञान एवं भाषा लिपियों का मूलाधार है।