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मन्त्र और मातृकाएं
मन्त्र शब्द के विविध अर्थो से यह बात सहज हो जाती है कि मन्त्र किसी भी धर्म का बीजकोश है। आदेश ग्रहण करना अर्थात दृढ विश्वास के साथ धार्मिक विधि निषेधो को स्वीकार करना-यह मन्त्र शब्द की प्रथम व्युत्पत्ति वाला अर्थ है। इसी भाव को हम जैन शब्दावली मे सम्यग्दर्शन कहते है। छदमस्थ अवस्था को नष्ट कर मानव जब सम्यग्दृष्टि बन जाता है तभी धर्म से उसका भीतरी साक्षात्कार प्रारम्भ होता है । मन्त्र शब्द का द्वितीय अर्थ है विचार करना अर्थात समार और आत्मा के सम्बन्धो पर निश्चयनय की दृष्टि से विचार करना । सभी धर्मों में विश्वास के साथ ज्ञान की महत्ता स्वीकार की गयी है। सम्यज्ञान की महिमा जैन मात्र को सुविदित है । अत मन्त्र शब्द निश्चायक-असन्दिग्धज्ञान का भी दाता है । मन्त्र शब्द का तीसरा अर्थ मानव के आचरण पर बल देता है। तदनुसार हमे स्वीकृत एव ज्ञात धार्मिक व्रतों, सिद्धान्तो एव नियमो को सम्यक आचरण मे ढालना चाहिए कुल मिलाकर देखे तो सभी धर्मों में विश्वास, ज्ञान एव आचरण की इसी विशद्ध त्रिवेणी को धर्म का मलाधार माना गया है। मभी जैन शाखा-प्रशाखाओ द्वारा मान्य तत्वार्थ सूत्र-मम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग -भी सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र्य को साक्षात मोक्षमार्ग के रूप में प्रतिपादित करता है। इन्हे तीन रत्नत्रय भी कहा गया है। अतः सुस्पष्ट एवं स्वय सिद्ध है कि मन्त्र शब्द वास्तव मे धर्म का पर्याय ही है। मन्त्र मे सूत्र रूप म समस्त जिनवाणी गर्मित है। मन्त्र शब्द के अर्थ की विशेषता यह है कि पारलौकिक-आध्यात्मिक तथ्यो एव फलो के साथ लौकिक जीवन की समस्याओ का भी इसमे समाधान निहित है। मन्त्रशब्द का उक्त तीन क्रिया-परक अर्थों के अतिरिक्त सज्ञापरक अर्थ भी अत्यन्त महत्वपूर्ण एव धर्ममय है। मन् +त्र अर्थात् चित्त को वाण दायिनी, मुक्तिदायिनी-विशुद्ध अवस्था । चित्त, चिद् और चिति