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148 / महामन्त्र णमोकार एक वैज्ञानिक अन्वेषण
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भीतर और बाहर के लोग बाहर ही रहने लगे । सम्पर्क टूट गया। वहां से निकलने का किसी का साहस ही नही होता था ।
उसी समय श्रमण भगवान महावीर बिहार करते हुए वहां पधारे। राजा श्रेणिक भगवान के दर्शन करना चाहते थे, पर विवश थे। सुदर्शन सेठ ने प्राण हथेली पर रखकर भगवान के दर्शन करने का निश्चय किया। बस राजा से अनुमति ली और चल पडे । नगर के बाहर पैर रखते ही अर्जुन से उनका सामना हुआ । अर्जुन ने अपना कठोर मुद्गल सुदर्शन को मारने के लिए उठाया, पर आश्चर्य की बात यह हुई कि अर्जुन हाथ उठाए हुए कीलित होकर रह गया । यक्ष - शक्ति भी कीलित हो गयी। क्यो ? सेठ सुदर्शन ने परम शान्तचित्त से महामन्त्र णमोकार का स्तवन आरम्भ कर दिया और ध्यानस्थ खड़ रहे । कुछ देर तक यही स्थिति रही । मन्त्र की सरक्षिणी देविया सेठ की रक्षा के लिए आ गयी थी । बस नमस्कार करके यक्ष भाग खडा हुआ और अर्जुन असहाय हो गया । उसे अपनी भूख-प्यास और असहायावस्था
बोध हुआ । उसने सेठ सुदर्शन से पूर्ण विनीत भाव से क्षमा मागी । भगवान की शरण में जाकर मुनिव्रत धारण कर लिया । नगरवासियों को उसे देखते ही बहुत क्रोध आया और शब्दो के द्वारा तथा पत्थरो के द्वारा मुनि-अर्जुन का तिरस्कार हुआ। अर्जुन ने यह वडे धैर्य के साथ सहा. वह अविचल रहा। सुदर्शन सेठ से उसने महामन्त्र को गुरुमन्त्र के रूप में ग्रहण कर लिया था। धीरे-धीरे लोगो की धारणा बदली । अर्जुन ने अन्तत सल्लेखना धारण को और आत्मा की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की ।
निष्कर्ष - यह कथा स्पष्ट करती है कि महामन्त्र के प्रभाव से एक भक्त के प्राणो की रक्षा होती है और दूसरी ओर एक हत्यारा अपनी रामसोवृत्ति को त्यागकर आत्मकल्याण भी करता है। विश्वास फलदायक । सही आदमी का सही विश्वास सब कुछ कर सकता है ।
"नर हो न निराश करो मन को ।"
एकपतित एव अत्यन्त अज्ञानी व्यक्ति भी यदि महामन्त्र से जीवन की सर्वोच्चता प्राप्त कर सकता है तो विवेकशील श्रद्धावान् क्या नहीं पा सकता ?