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132 / महामन्त्र णमोकार एक वैज्ञानिक अन्वेषण
कान्ताकाञ्चनचकेषु भ्राम्यतिभवनत्रयम्।
तासु तेषु विरक्तोयः द्वितीयः परमेश्वर ॥ सारा समार स्त्री और काचन के चक्र में घूम रहा है, जो व्यक्ति इनसे विरक्त रहता है, वह दूसरा परमेश्वर है। साध अर्हत बनने की साधना कर रहा है, इससे वह भी परमेष्ठी बन जाता है।'
मथितार्थ-उक्त महामन्त्र विशुद्ध रूप से गुणो को सर्वोपरि महत्त्व देकर उनकी वन्दना का मन्त्र है। किसी व्यक्ति, जाति या धर्म विशेष का इसमे उल्लेख नहीं है। अत यह सार्वजनिक, सार्वधार्मिक एव देशकालजयी सर्वप्रिय नमस्कार महामन्त्र है। इसमे नम शब्द के द्वारा भक्त की निगहकारी निर्मल मन स्थिति प्रकट की गयी है तो दूसरी ओर गुणात्मकता के कारण विश्व विश्रुत शक्तियो की महत्ता को स्वीकारा गया है, किसी सासारिक या पारलौकिक लाभ का सकेत भी भक्त नही देता है। अत भक्त की भी महानता का पता लगता ही है। ससार मे सरल और विशुद्ध विनयी होना सबसे कठिन काम है। यह मन्त्र सरलता की नीव पर ही खडा है। सरलता का अर्थ है निर्विकार-- निष्कम अवस्था।
पदक्रम
णमोकार महामन्त्र मे पदक्रम रखा गया है-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साध। इन पच परमेष्ठियो के गुणो के आधार पर जो वरिष्ठता का क्रम बनता है उसके अनुसार णमोकार मन्त्र का क्रम ठीक नही बैठता है। सिद्ध परमेष्टी मे रत्नत्रय की पूर्णता होती है और अष्ट कर्मो का पूर्ण क्षय भी वे कर चुके होते है। ये बाते अरिहन्त परमेष्ठी मे नही होती है अत सिद्धो को मन्त्र में प्रथम स्थान प्राप्त होना चाहिए था। यह शका स्वाभाविक है । परन्तु यह महामन्त्र अतिप्राचीन है और अनाद्यनन्त है। इसके रचयिता भी यदि रहे हो तो कमसे-कम परममेधावी तीर्थकर कोटि के ही रहे होगे। उनकी वाणी को ही गणधरी ने ग्रथित .या होगा। तब क्या उन्हे इस वरिष्ठता म का ज्ञान न था ? अवश्य था । तब उक्त क्रम के लिए उनके मन में कोई
• 'तीर्थकर' नव-दिस० 80, पृ० 36